सोमवार, 30 अप्रैल 2007

इंटरनेट पर सवार भोजपुरी

इंटरनेट पर सवार भोजपुरी

चंडीदत्त शुक्ल, नई दिल्ली

कुछ दिन पहले तक यह सोचना भी मुश्किल था कि लिट्टी-चोखा का जायका इंटरनेट के जरिए फिजी तक पहुंच सकेगा या फिर मॉरिशस में रहने वाले, 71 वर्षीय सौरव परमानंद वेबसाइट पर भोजपुरी का लेख पढ़ सकेंगे। हालांकि अब माहौल बदल चुका है। गंवई भाषा कही जाने वाली भोजपुरी एबीसीडी, यानी आरा, बलिया, छपरा, देवरिया की सीमा से बाहर निकलकर सिंगापुर, सूरीनाम, वेस्टइंडीज, अमेरिका, दक्षिण अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया, चीन और जापान समेत 49 देशों तक पहुंच रही है। दरअसल, इन दिनों इंटरनेट पर भोजपुरी से संबंधित वेबसाइट्स की भरमार है। यहां न सिर्फ देशी व्यंजन बनाने की विधि उपलब्ध है, बल्कि ऑर्डर देकर सतुआ, पंचांग, चीनिया केला, गमछा और जर्दा भी मंगाया जा सकता है। गौरतलब है कि 23 नवंबर, 2005 को 43 देशों के 11 हजार, 56 लोगों ने बिहार के विधानसभा चुनाव परिणामों की जानकारी हासिल करने के लिए इन साइट्स की मदद ली। कई लोग भोजपुरिया शादी विकल्प से मनपसंद साथी ढूंढने की कोशिश भी कर रहे हैं। गीत-संगीत की बात करें, तो http://madhu90210।tripod।com/id23।html पर लॉग ऑन कर मनोज तिवारी मृदुल के बगलवाली जान मारली और शहर के तितली घूमे होके मोपेड पे सवार का आनंद लिया जा सकता है, जबकि गुड्डू रंगीला के हमरा हऊ चाहीं व ऐ चिंटुआ के दीदी तनी प्यार करै दे गीत भी साइट पर उपलब्ध हैं। en।wikipedia।org/wiki/Bhojpuri_language पर विजिट कर जाना जा सकता है कि इंडो-ईरानियन लैंग्वेज श्रेणी के तहत भोजपुरी किस स्थान पर है। भोजपुरी एसोसिएशन ऑफ नॉर्थ अमेरिका की वेबसाइट की शुरुआत का हो, का हाल बा! के अपनत्व भरे संबोधन के साथ होती है, वहीं http://222।bhojpuri2orld।org/क्लिक करने पर राउर स्वागत बा जैसी इबारत पढ़ने को मिलती है। यहां लागी नाहीं छूटे रामा, गंगा मैया तोहे पियरी चढ़इबौ, बलम परदेसिया और गंगा किनारे मोरा गांव जैसी चर्चित फिल्मों के गीत भी सुने जा सकते हैं। वैसे, पिछले दिनों डिजिटल एंपावरमेंट फाउंडेशन द्वारा मुंबईवासी शशि सिंह और सुधीर कुमार की भोजपुरिया।कॉम वेबसाइट को ई कल्चर श्रेणी में पहला पुरस्कार मिलने के साथ यह बात प्रमाणित हो गई है कि साइबर की दुनिया में भोजपुरी धीरे-धीरे ही सही, धाक जमा रही है।


दैनिक जागरण में प्रकाशित

मायानंद मिश्र

रचनाकार साहित्य रचें, कपड़े न उतारें
भिंची मुट्ठियां, गुस्से से थरथराते होंठ और दूसरे ही पल चेहरे पर थिरकती मुस्कान..यह सब तभी देखने को मिलता है, जब हम मायानंद मिश्र जैसे तपे-सच्चे साहित्यकार से बात कर रहे हों। सिर्फ एक साल पहले तक ब्रिटिश जमाने के जर्जर पुल के सहारे विकराल कोसी नदी पार करके शहर तक जाना जिस बनैनिया गांव के लोगों के लिए दुष्कर था, वहीं के मायानंद वैदिक काल के आख्यानों की पुन : प्रस्तुति रचने के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित होंगे, कौन सोच सकता है। हालांकि, बनैनिया पिछले साल बाढ़ का शिकार होकर अपना अस्तित्व खो बैठा है लेकिन वहां के अभाव भरे संसार से चमत्कार बनकर उभरे मायानंद ही हैं वह शख्स, जिन्होंने बनैनिया की बौद्धिकता को पूरे संसार में स्थापित किया। 70 साल की उम्र में भी मायानंद किसी युवा से अधिक ऊर्जावान हैं। प्रस्तुत हैं साहित्य की दुनिया में सियासत की वजह, यौन स्वच्छंदता की वकालत करते भोंडे बयानों की जरूरत, साहित्य की प्रासंगिकता और मिश्र के विचार-संसार में होती उथल-पुथल की बाबत की गई बातचीत के प्रमुख अंश : राजकमल चौधरी आपके अभिन्न मित्र थे। कहते हैं, हिंदी साहित्य जगत के कुछ प्रसिद्ध साहित्यकारों ने उन्हें अस्त करने की बहुत कोशिश की। आजकल अदब की दुनिया में यह सब धड़ल्ले से हो रहा है। प्रतिभाएं अक्सर काल-कवलित हो जाती हैं। कभी अतिशय प्रशंसा के कारण तो कभी अत्यधिक निंदा से कुचल जाती हैं। आप इस सबको किस दृष्टि से देखते हैं। राजकमल को अस्त करने की बात से मैं सहमत नहीं हूं। हालांकि हो भी सकता है कि उन्हें दबाने-कुचलने की कोशिश की गई हो लेकिन वह तो चमकता हुआ सूर्य था, उसे कौन अस्त कर सकता है। मैं वैसे भी सहरसा में था। यहां क्या हुआ, मैं कैसे बताऊं, लेकिन एक बात तो स्पष्ट है, वह यह कि प्रतिभा को कोई रोक नहीं सकता। मेधा अपनी जगह खुद बनाती है। मुझे जो गद्यकार सबसे अधिक प्रिय हैं, उनमें महादेवी, दिनकर और राजकमल प्रमुख हैं। अब इन तीनों के पीछे कोई सपोर्ट नहीं था लेकिन कौन दबा पाया इन्हें? अब प्रतिभाओं के दमन के पीछे कारण तो एक ही है..वरिष्ठों को कहीं संदेह हो सकता है कि वे दब न जाएं, इसलिए भी प्रतिभाओं को दबाने-कुचलने की कोशिश की जाती है। कभी-कभी नए लोगों का कुछ नुकसान भी होता है लेकिन लंबे समय तक मेधा को दबाया नहीं जा सकता। वह अपना स्थान बना ही लेती है। साहित्य की सौंदर्यशास्त्रीय परिभाषा जो भी दी जाती रही हो, आज तो विद्रूपता हर जगह नजर आती है। अगर उठने-गिरने, लैगपुलिंग की बात छोड़ भी दें तो विचारधाराओं के विभाजन के आधार पर साहित्य में कई खांचे बना दिए गए हैं। कोई मा‌र्क्स से प्रभावित होकर साहित्य में राजनीतिक अनुशीलन प्रस्तुत कर रहा है तो कोई स्त्री विमर्श के नाम पर सारी दुनिया के पुरुषों के प्रति नफरत की खाई खोदवाने में लगा है? आप क्या सोचते हैं? यह सब प्रतिबद्धता की बात है। कुछ मा‌र्क्सवाद से प्रभावित हैं तो कुछ अन्य किसी पंथ, वाद या विचारधारा से। लेकिन एक बात साफ जान लीजिए। श्रेष्ठ साहित्य विचारधारा से प्रभावित नहीं होता। वह समाज के वंचित, दबे-कुचले लोगों की समस्याओं को संवेदनशीलता के साथ उठाने का काम करता है। किसी का दुख सांझा करने, उसके लिए समस्याओं का हल तलाशने का काम करने के लिए किसी राजनीतिक विचारधारा से आबद्ध होने की जरूरत मैं तो नहीं समझता। सच यह है कि जब आप किसी खास विचारधारा से प्रतिबद्ध होकर वर्णन करने लगते हैं तो रंगीन चश्मा पहनकर समाज की एकांगी व्याख्या करने लगते हैं। यह किसी दृष्टि से हितकारी नहीं होता। जहां तक स्त्री विमर्श या दलित चिंतन की बात है, तो कुछ लोग अपने हिसाब से साहित्य की परिभाषाएं बना रहे हैं, उन्हें लकीरें खींचने दीजिए। हमें इसके लिए सिरदर्द नहीं पालना चाहिए। साहित्य को बाजार ने प्रभावित किया है यह उक्ति पिछले कुछ समय से सूक्ति की तरह प्रयोग में लाई जा रही है। आप मानते हैं कि सर्जनशीलता बाजारी प्रभाव के दायरे से प्रभावित हो सकती है? बाजार या बाहरी दबाव से साहित्यकार कभी प्रभावित नहीं होता। पुरस्कारों के लिए कलमकार नहीं लिखता। कवि कभी तालियों के लिए कविता नहीं रचता। आपने सुना होगा-यशसे अर्थवृत्ते व्यवहार विदे शिवेत रक्षये। कवि के लिए यश तो महत्वपूर्ण है लेकिन अर्थ नहीं। शब्द की अस्मिता बचाने के लिए संघर्ष करें तो बात भी है, केवल धन या खोखली प्रतिष्ठा के लिए खेमेबाजी निम्न व्यक्तित्व का द्योतक है। किताबों को लेकर लोगों में उत्साह नहीं है। मुद्रित शब्दों के प्रति आम जन की आस्था घटी है, लेखकों को रोटी नहीं जुटती? इस तरह के प्रश्नों को आप आरोप मानते हैं या खालिस सच करार देंगे। यह न तो आरोप है, न सत्य। आप कह रहे हैं तो कहीं न कहीं पीड़ा का अनुभव करते हुए कह रहे होंगे लेकिन सत्य यही है कि किताबें अधिक मात्रा में न पढ़ने के पीछे लोगों की व्यस्तता भी एक कारण है। बावजूद इसके जितने भी पढ़े-लिखे लोग हैं, वह पढ़ते हैं। इतनी किताबें छपती हैं, बिकती हैं। आप ही बताएं, यदि यह लाभ का सौदा न होता तो प्रकाशक लाखों खर्च करके यह व्यवसाय क्यों चलाते रहते? इलेक्ट्रानिक मीडिया को साहित्य का शत्रु घोषित किया जा रहा है। वह पश्चिम से आया है। वहां भी किताबें छपती हैं, बिकती हैं वह भी ढेरों मात्रा में। हां, इलेक्ट्रानिक मीडिया ने पाठकों को आप्शन जरूर दिया है लेकिन साहित्य की जगह अब तक बरकरार है। जहां तक बात लेखकों के भूखे मरने की बात है, यह सर्वकालिक प्रश्न है। प्रेमचंद के जमाने तो लोग किताबें बहुत पढ़ते थे तो प्रेमचंद खस्ताहाल क्यों रहे? निराला ता-जिंदगी सीलनभरी कोठरी में दिन गुजारने के लिए मजबूर क्यों थे? हो सकता है उस समय प्रकाशन व्यवसाय में लेखक सबसे कमजोर पायदान पर रहा हो लेकिन आज का रचनाकार ठीकठाक स्थिति में है। उसे मालपुआ नसीब भले न हो, सम्मान की रोटी तो वह जुटा ही लेता है। कुछ साहित्यकार अपने स्तंभों में अनूठे ढंग के विवादास्पद बयान देने में दिन-रात जुटे रहते हैं। उनके लिए पाठकों और सर्जन के स्वास्थ्य की कोई अहमियत नहीं है क्या? देखिए, नई बात कहने के चक्कर में ऐसे तथाकथित साहित्यकार इतने उतावले हो जाते हैं कि वह खुद नहीं जा पाते कि क्या कह रहे हैं? उनका कथन कितना प्रासंगिक नहीं है। दलित साहित्य के बारे में कहा जा रहा है कि पहले इनकी पीड़ा लिखी ही नहीं गई तो प्रेमचंद कफन, गोदान, ईदगाह में किस वर्ग की बात कर रहे थे? अब लोग उन्हीं प्रेमचंद की रंगभूमि की चिता जला रहे हैं। एक बात साहित्यकारों को समझनी चाहिए, यदि वे समाज को आहत करने वाले बयान देते रहे तो पाठकों को समझ आ जाएगा, जिन्हें वे आदर्श मानते हैं-वे दरअसल छिछले हैं। आज का समाज वैसे ही टूट चुका है। 200 साल में अंग्रेज समाज को जितना नहीं तोड़ पाए, मंडल कमीशन ने एक रात में उससे ज्यादा नुकसान कर ही दिया है। अब बाकी बचे समाज को खांचों में बांटकर और ध्वस्त न कीजिए। आत्मकथाओं में लेखिकाएं बेडरूम के दृश्य लिखकर किस रचनात्मक अवदान को बढ़ावा दे रही हैं? अब मैं क्या कहूं उनकी दुर्बुद्धि पर। मैं तो यही कहूंगा कि जो काम करने से पहले आपने समाज से नहीं पूछा, उसके लिए अब हल्ला क्यों मचा रही हैं आप? आपके अवैध संबंधों में पाठकों की रुचि नहीं है। कृपा करके, समाज का विकास करने वाली बात कीजिए। उसे डुबाने का उपक्रम न कीजिए। मनुष्य ने हजारों वर्ष के उपक्रम के बाद वस्त्र का आविष्कार किया है, अब नग्न होकर अस्वाभाविकता का दर्शन कराने से पाठकों को कोई अलग लाभ नहीं होने वाला। -चण्डीदत्त शुक्ल

प्रयाग शुक्ल

बड़े भ्रम में हैं विवाद पैदा करने वाले: प्रयाग शुक्ल
रोज बदल रही दुनिया में मैं एकांतवासी की भूमिका में हूं.. कहकर सहसा गंभीर हो गए उस शख्स को आप पलायनवादी न समझें। शीरीं जुबान से आप कैसे हैं? पूछ अपनी मृदुता से मुग्ध कर देने वाले प्रयाग शुक्ल चर्चा में रहने के लिए अपनाए जा रहे हथकंडों से दूर बैठकर भी संतुष्ट हो चुके शख्स हैं..तकरीबन छल-छद्म की दुनिया से अलग-थलग अपने निज के संसार में प्रसन्न सर्जक। दिनमान और नवभारत टाइम्स में महत्वपूर्ण पदों पर कई साल नौकरी कर चुके प्रयाग से रविवार के अलावा हफ्ते भर मंडी हाउस स्थित राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में निदेशक के कमरे के ठीक बगल रंग-प्रसंग के दफ्तर में बेझिझक मिला जा सकता है। प्रयाग इन दिनों रानावि की पत्रिका रंग प्रसंग के संपादक हैं और संवेदनशील कवि के रूप में उनकी पहचान तो जग-जाहिर है ही। प्रयाग से हमने जाना साहित्य की दुनिया में हो रही सियासत, युवाओं के मोहभंग और इसके लिए जिम्मेदार लोगों के बारे में : क्या यह क्रूर सत्य नहीं कि साहित्य समाज के लिए की परिभाषा 21वीं सदी की दहलीज तक आते-आते औंधे मुंह गिर गई है? साहित्य तो बराबर समाज के लिए ही लिखा जाता रहा है। कुछ दिक्कतें जरूर हो सकती हैं। हिंदी में हालात कुछ ऐसे हुए हैं कि लेखक का समाज नहीं बचा है। 20 साल पहले तक शहर से बाहर कहीं जाने पर या फिर अपने आस-पास पाठक समाज के दर्शन हो जाते थे। आज वह कहीं नजर नहीं आता। पाठकों के लिहाज से हम दरिद्र कहां हैं? हिंदी अखबार तो करोड़ से भी ज्यादा पाठकों को संजो रहे हैं? यह एक विचित्र बात है कि एक करोड़ से भी ज्यादा हिंदी अखबार बिक रहे हैं लेकिन किताबें उसी रफ्तार से घटती जा रही हैं। अखबारों को सूचना के लिहाज से तो बढ़त मिल गई है लेकिन मुद्रित साहित्य लुप्त होने की स्थिति तक पहुंच रहा है। आपकी मूल चिंता क्या है? किताबों के प्रति मोहभंग या फिर कुछ और..? हम अपनी विरासत को ही भूलते जा रहे हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण नहीं तो क्या है कि लोग प्रेमचंद, सुभद्राकुमारी चौहान, भगवती चरण वर्मा को भी भूल बैठे हैं। जो पीढ़ी अपनी जड़ें भुला देगी, वह खुद कैसे पनपेगी? अखबारों ने तो साहित्य के संरक्षण के लिए काम किया है? अखबारों को साहित्यिक बनाने की जरूरत बिल्कुल नहीं है। कुछ जगह साहित्य के पृष्ठ भी निकाले जा रहे हैं लेकिन अव्यवस्थित ढंग से। इससे बेहतर तो यह है कि धरोहर पर केंद्रित करके बिसरे जा रहे साहित्यकारों की रचनाओं, विचारों को प्रकाशित किया जाए। अब साहित्यिक पृष्ठ तो निकल रहे हैं लेकिन कई अवांछित विज्ञापन साहित्य के उसी पन्ने को जबरिया घेर लेते हैं। इस बात का कभी दुख नहीं होता कि लोग मुझे बहुत बार नहीं पहचान पाते। न पहचानें, लेकिन साहित्य के अमर लोगों को क्योंकर भुला दिया जाता है? लिखने के लिए पहचाने जाने वाले साहित्यकार आज स्कैंडलों के लिए ज्यादा मशहूर क्यों हैं? कुछ साहित्यकार आश्वस्त नहीं हैं कि समाज उनके साथ है, शायद इसीलिए ऐसी समस्याएं पैदा हो रही हैं। आम तौर पर हिंदी का लेखक समझ नहीं पा रहा है कि समाज बदल रहा है। शहर में शोर मचाकर खुद को छपवाने में लगे लेखक लोगों के बीच जाकर उनकी दिक्कतें समझें, फिर लिखें तो स्वीकार्यता जरूर मिलेगी। एक खास बात यह भी है कि विवादों से कुछ नहीं होने-जाने वाला। ऐसा करने वाले लोग बहुत बड़े भ्रम में हैं। वे इतनी छोटी दुनिया में रह रहे हैं, जहां से बाहर का नजारा उन्हें नजर नहीं आता। औसत प्रतिभा का संक्रमण सचेत साहित्य संसार को दूषित तो नहीं कर रहा? मैं चीजों को किसी एक औसत परिभाषा में बांधने के विरुद्ध हूं। प्रतिभा भी औसत नहीं हो सकती। प्रतिभा की कहीं कमी नहीं है लेकिन उसका उपयोग सही तरीके से नहीं हो रहा है। साहित्य की दुनिया में त्रुटियां यह हुई हैं कि हम युवाओं की नब्ज नहीं पकड़ सके हैं इसीलिए उन्हें हम अपनी ओर नहीं खींच पा रहे हैं। साहित्यिक कार्यक्रम इतने फीके क्यों पड़ गए हैं? फिल्मों, चित्र प्रदर्शनियों, नाटकों, नृत्य के कार्यक्रमों व संगीत जगत के प्रति तो युवा आकर्षित हो रहे हैं लेकिन साहित्यिक गोष्ठियों में अब भी युवा पीढ़ी की भागीदारी के नाम पर सन्नाटा ही नजर आता है। आज का युवा बौद्धिक तौर पर सजग और संभला हुआ है। असल गड़बड़ कई साहित्यिक संस्थाओं की तरफ से हुई है। उनकी नीतियां अस्पष्ट और भ्रामक हैं। युवाओं के लिए वह ऐसा कुछ नहीं दे पा रही हैं, जो नौजवान पीढ़ी चाहती है। समाज बदला है, पीढ़ी बदली है, उनकी आकांक्षाएं बदली हैं, जिन्हें हम समझ नहीं पा रहे हैं। पहले तो मुद्रित शब्दों के प्रति लोग आस्थावान थे, अब वह प्रतिबद्धता क्यों नहीं रही? पहले समाज में दूसरी कलाएं इतने प्रभावकारी ढंग से उपस्थित नहीं थीं। अब साहित्य के लिए अन्य कलाओं को औजार बनाकर इस्तेमाल करना होगा। कला को औजार की तरह इस्तेमाल करने के संदर्भ में आपकी पहल तो काफी प्रासंगिक बन सकती है, क्योंकि राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय का मंच तो आपके साथ है ही। श्रुति कार्यक्रम इस कोशिश की गवाही है। कहानी-कविता के मंचन के जरिए ऐसा प्रयास हमने किया है। कई अनचीन्हे साहित्यधर्मियों को मंच देने का उपक्रम भी हुआ है। आगे भी हम ऐसा करते रहेंगे। विष्णु खरे ने कहीं कहा है कि आपकी कविताएं उन्हें कविता जैसी नहीं लगतीं? यह उनकी राय है और वे ऐसी सोच रखने के लिए स्वतंत्र हैं। इस पर मैं क्या कहूं और क्यों कहूं? क्या रंग-प्रसंग बहुत बौद्धिक नहीं होता जा रहा है? सूचना-तकनीक की समृद्धता वाले युग में कार्यक्रमों की सूचनाएं छापना बासी थाली परोसने जैसा है। विचारों की पुष्टता सर्वाधिक आवश्यक है। इन दिनों क्या कर रहे हैं? रवींद्रनाथ ठाकुर की 12 कहानियों का अनुवाद मैंने पूरा कर लिया है। स्कॉलॉस्टिक प्रकाशन इस भावानुवाद को प्रकाशित कर रहा है। वैसे, शोर मचाने वालों की दुनिया में मैं एकांतवासी की भूमिका में हूं। मुझे तत्काल लाभ की चिंता के बगैर काम करना अधिक सुख देता है। भविष्य की नींव ऐसे ही खड़ी होती है। - चण्डीदत्त शुक्ल

मैत्रेयी पुष्पा

सेक्स की तलाश में नहीं रहती मेरे उपन्यासों की स्त्री : मैत्रेयी पुष्पा
मैं अपना टेप रिकार्डर खोलती हूं, इसमें उन सच्ची औरतों की आवाजें हैं, जो नि:शंक भाव से मानती हैं कि जरूरी नहीं, पति ही उनके बच्चों का पिता हो॥ ये पंक्तियां हैं मैत्रेयी पुष्पा के एक लेख की। उनके उपन्यासों की स्त्री इतनी बेबाक है कि समाज के ठेकेदारों को कई बार निर्लज्ज भी नजर आने लगती है। हालांकि, मैत्रेयी अपने पात्रों के ऐसे नामकरण का सख्ती से प्रतिकार करती हैं। अल्मा कबूतरी, चाक, कस्तूरी कुंडल बसै, इदन्नमम और हालिया चर्चा में आई कही ईसुरी फाग समेत पिछले 14 साल में 13 रचनाएं लिख चुकी पुष्पा ने माना कि स्त्री विमर्श के क्षेत्र में सक्रिय अन्य महिला साहित्यकारों के वे सीधे निशाने पर हैं, साथ ही उन्होंने यह भी बताया, ऐसा क्या है, जिसकी वजह से वह कड़वा-कड़वा लिखने को मजबूर हो जाती हैं? प्रस्तुत हैं बातचीत के प्रमुख अंश : चर्चा है कि सिर पर एक बड़े साहित्यकार का हाथ न होता तो आप इतनी प्रसिद्ध न होतीं.. अगर यही सच होता तो मेरे लेखन को सारे संसार में पसंद करने वालों की लंबी तादाद न होती। फिर तो (उक्त साहित्यकार का नाम लेकर कुछ झुंझलाते हुए) वही मेरी किताबें पलटते और रख देते..आप तक उनकी चर्चा भी न पहुंचती। आपकी नायिकाएं अपनी मुक्ति देह की आजादी में तलाशती है और आप बिना वजह अपने रचनाकर्म को सेक्स केंद्रित करती हैं? यह बेकार की बात है..दरअसल स्त्री को घेरने की कोशिश उसकी देह को लेकर ही की जाती रही है, मेरे बारे में भी इसीलिए यह सबकुछ कहा जाता है ताकि अपनी जुबान बंद कर लूं। एक चीज साफ जान लीजिए, मुझे ऐसा कोई डर नहीं कि सच कहने से मुझे मिलने वाले कितने पुरस्कार रुकवा दिए जाएंगे या विरोध में समीक्षाएं लिखी जाएंगी। यह तो होता ही रहा है। जहां तक रचनाओं में सेक्स उड़ेलने की बात है, इस तरह कुछ भी नहीं हुआ है। जहां घटनाक्रम ऐसा है, परिस्थितियों की मांग हुई है, वहीं मेरी नायिकाओं ने ऐसा किया है। अगर मैं जान-बूझकर सेक्स को कथा का सूत्र बनाने वाली मानसिकता रखती तो कहीं ईसुरी फाग में तो इसकी अपार संभावना थी। पूरी पुस्तक में कई जगह शरीर को लेकर फाग कही गई है। ऐसे तो काम दृश्यों की भरमार हो जाती। लेकिन आपकी अल्मा कबूतरी तो दुष्कर्म का शिकार होते हुए भी आनंद अनुभव करती है? क्या वह हर वर्जना से मुक्त है? यह कहना आसान है कि वह वर्जनाओं से मुक्त है लेकिन क्या अल्मा या अन्य स्त्रियां सिर्फ साधारण वर्जना से घिरी हैं? यह तो यातना और यंत्रणा है। सांरग चाक में जिस स्थिति में वर्जनाएं तोड़ती नजर आती है, दरअसल वह उस समय की सामाजिक-शैक्षणिक व्यवस्था की यंत्रणाएं तोड़ रही होती है। फिर अल्मा की तुलना आप अपने समाज से क्यों करते हैं? कबूतरी एक अपराधी जनजाति की महिला है। कबूतरा या तो जंगल में रहता है या फिर जेल में। अल्मा एक मादा भी तो है। उसकी नस्ल खत्म हो रही है। फिर दुष्कर्मी के खेतों में उसके डेरे हैं। अब वह क्या करे? आप ही बताइए, जब स्त्री की जान ही सांसत में आ जाए तो वह जीने के रास्ते तो तलाशेगी ही। ..पर स्त्री की शुचिता का सवाल कहीं पीछे नहीं छूट जाएगा? आखिर अकेली स्त्री से ही क्यों उम्मीद करते हैं कि वही शुचिता का खयाल रखेगी? मैं इतनी उम्र में भी रात के 12 बजे तक घर से बाहर रहने की बात कहूं तो लोग आसमान सिर पर उठा लेंगे लेकिन पति तीन बजे रात में भी घर आना चाहें तो स्वागत है, ऐसी विसंगति क्यों है? स्त्री को पता है कि वह कितनी पवित्र है और रहना चाहती है। उसकी परिभाषाएं पुरुष नहीं गढ़ सकते। पुरुष वर्चस्व के दायरे में स्त्री की देह ही होती है। जन्म से शादी के पहले तक उसी देह की रक्षा होती है और विवाह के बाद उसका उपभोग। इस पूरे चक्र में स्त्री की योग्यता क्यों नहीं देखी जाती? देह से हटकर सोचें तो पता लगेगा कि स्त्री क्या है? चौदह साल के लेखकीय जीवन में तेरह रचनाएं? ऐसे में रचनात्मक उत्कृष्टता की गुंजाइश बचती है? आपने तो यह प्रश्न साफ-सुथरे ढंग से पूछा है। मुंबई की एक महिला साहित्यकार ने कहीं कहा था, मैत्रेयी हर साल बच्चे पैदा करती हैं। मेरे उपन्यास निश्चय ही मेरी संतान हैं और किसी से कमजोर भी नहीं हैं। जब तक मुझे लगेगा मैं सशक्त बात रख रही हूं, लिखती रहूंगी। आपके एक बयान को लेकर इन दिनों खूब विवाद है, जिसमें कथित तौर पर आपने एक साहित्यकार की कृपादृष्टि हासिल करने के लिए किए गए उपक्रमों की चर्चा की है? इसमें कितना सच है? यह पीत पत्रकारिता का सर्वोत्तम उदाहरण है। इसमें लेशमात्र भी सत्य नहीं है। आप अन्य महिला साहित्यकारों के हरदम निशाने पर ही क्यों रहती हैं? (हंसते हुए) मैं चाहती हूं कि निशाने पर रहूं। मैं यहां स्त्री का सच कहने आई हूं, सुविधाभोगी स्त्री का नहीं, उस ग्रामीण स्त्री का सच, जिसकी ओर अन्य महिला साहित्यकारों की निगाह नहीं गई है। निशाने साधे जाने से मैं भयभीत नहीं होती। -चण्डीदत्त शुक्ल

नासिरा शर्म

देह की आजादी नहीं दिलाती हर पीड़ा से मुक्ति : नासिरा शर्मा

अफगानिस्तान की मजलूम औरतों के आंसुओं से लबरेज चेहरों पर उभरी दर्द की लकीरों और उनसे टपकते दुख को जब एक स्त्री ने ही अखबार के पन्नों पर रंगना शुरू किया तो पूरी दुनिया के नारीवादी एकबारगी सिहर उठे, इतना शोषण, ऐसा अत्याचार, अब तक सुना नहीं-देखना तो दूर की बात है। उन्हीं दिनों अफगानिस्तान से एक कल्चरल अटैची जेएनयू पहुंचा और कुछ लोगों से पूछने लगा, कौन है ये नासिरा, जिसने बादशाहों के खिलाफ आवाज उठाने की हिम्मत की। और जब उसने देखा, नासिरा महज 27 साल की एक साधारण युवती है तो एकबारगी चौंक गया। उसके दिमाग में तस्वीर थी, कद्दावर शख्सियत की मालिक किसी बुजुर्ग महिला की। वही नासिरा अब वय और अनुभव से पकी हुई चर्चित साहित्यकार के रूप में प्रतिष्ठित हो चुकी हैं। स्त्री विमर्श के नाम पर अश्लीलता भरे बयानों की दुकानदारी करने वाले साहित्यकारों के खिलाफ कुछ खुलकर वह बोलती नहीं, लेकिन कहती हैं, कीचड़ कहां-कहां है, दुनिया जानती है, मैं क्योंकर कहूं? इन्हीं नासिरा से बेबाक बातचीत की चण्डीदत्त शुक्ल ने।

स्त्री विमर्श के नाम पर देह की जिस स्वच्छंदता की बात मौजूदा दौर की कुछ नारी साहित्यकार कर रही हैं, आप उससे कितना इत्तफाक रखती हैं? औरत को उसकी पूरी आजादी मिलनी चाहिए। वह चाहे अपना जीवनसाथी चुनने की हो या प्रेमी के रूप में किसी के चयन की आजादी हो। हां, प्राथमिक तौर पर यह गलत है क्योंकि इससे कई घर बिखरते हैं। अपनी देह किसी को दे दें, यह कोई आजादी नहीं है। देह को लेकर तरह-तरह के बंधनों से मुक्ति ही सभी पीड़ाओं का जवाब होती तो यूरोपीय समाज, अमेरिका और लंदन की स्त्रियों की आंखों में आंसू न होते। लेकिन साहित्य में तो इस स्वच्छंदता की खूब हिमायत हो रही है? कुछ लोग करते हैं-सिर्फ सनसनी के लिए लेकिन उनका उत्कर्ष बहुत कम देर का होता है। बाद में कोई पूछता भी नहीं। स्त्री विमर्श से हटकर अब संपूर्ण साहित्य की बात करें। मठाधीशी, खेमेबंदी और सियासत, ये सब साहित्य का अंग तो कभी न थे। अब क्योंकर हो गए? जलन और हसरत हर एक के मन में होती है। जब कुछ अच्छा कोई लिखता है, तो एकबारगी होता ही है, काश! मैं इतना अच्छा रच पाता? जलन के भाव में कहते हैं, यह मैं क्यों नहीं कर पाया? उसने कैसे कर लिया? अब यह भाव सकारात्मक हो तब तो रचनात्मकता विकसित होती है। कुछ बेहतर सर्जन हो पाता है। एकदम अलग धरती पर जाकर सोता फूटता है। नकारात्मक चिंतन होने पर चीजें बिगड़ने लगती हैं और यहीं से साहित्य में सियासत का उद्गम होता है। दूसरे, एक बात और है, विज्ञापन युग और लेखन, बाजार व साहित्यकार-दोनों अलग-अलग चीजें हैं। इन्हें जब भी गड्डमड्ड किया जाता है तो तरह-तरह की सियासत जन्म लेने लगती है। मतलब साहित्य में सियासत बाजार के प्रभाव से ही संचालित होती है? बेशक! कई प्रकाशक कुछ बार अपनी जिम्मेदारियां निभाने से चूक जाते हैं। वे लेखक से कहते हैं, अपनी स्थिति का लाभ उठाइए, गोष्ठी कराइए, किताब हाईलाइट होगी। आदि-इत्यादि। यहीं पर सर्जन से इतर सियासत शुरू हो जाती है। किंतु कुछ जगह तो परस्पर निंदा-प्रशंसा का बहुत जोर है? अब जो लोग अपनी प्राइवेट पत्रिकाएं निकाल रहे हैं, उन्हें भी तो पैसा चाहिए? अब वे कुछ पैसा लेकर दो-चार चीजें किसी की छाप दें। इस पर कुछ विवाद खड़ा हो जाए तो यह सामान्य ही है? किसका नाम लेंगी? किसी का नहीं। आज का दौर हर तरह की अति के विरुद्ध है। वह चाहे किसी को प्रतिष्ठित करने के लिए की गई अति हो या किसी और तरह की? अब मैं क्योंकर किसी का नाम लूं? सच बोलने का जोखिम तो साहित्यकारों को ही उठाना है? सच किसी से छिपा है क्या? वैसे भी कीचड़ में घुसकर कमल रोपने की कोशिश मैं नहीं करना चाहती। पाठकों को सबकुछ पता है। आप यह तो नहीं कहना चाहतीं कि जो लोग साहित्य में विवाद खड़े करने की कोशिशें कर रहे हैं, वे मीडियाकर्स हैं? मुझसे किसी सनसनी की उम्मीद न कीजिए। कौन औसत प्रतिभा का है और कौन योग्य, इसका मूल्यांकन पाठक ही करेंगे। आपका काम जितना चर्चित है, उसके बरक्स आप वाद-विवाद के केंद्र में क्यों नहीं घिरतीं मैं चाहती हूं कि मेरी कलम को लोग जानें, सराहें और उससे भी ज्यादा समझें। यही वजह है कि मैं साहित्यिक सम्मेलनों में भी कम ही जाती हूं। विवादों से प्रतिभा का मूल्यांकन नहीं होता।

साई

प्यार बांटते साई

प्राणिमात्र की पीड़ा हरने वाले साई हरदम कहते, 'मैं मानवता की सेवा के लिए ही पैदा हुआ हूं। मेरा उद्देश्य शिरडी को ऐसा स्थल बनाना है, जहां न कोई गरीब होगा, न अमीर, न धनी और न ही निर्धन..।' कोई खाई, कैसी भी दीवार..बाबा की कृपा पाने में बाधा नहीं बनती। बाबा कहते, 'मैं शिरडी में रहता हूं, लेकिन हर श्रद्धालु के दिल में मुझे ढूंढ सकते हो। एक के और सबके। जो श्रद्धा रखता है, वह मुझे अपने पास पाता है।'

साई ने कोई भारी-भरकम बात नहीं कही। वे भी वही बोले, जो हर संत ने कहा है, 'सबको प्यार करो, क्योंकि मैं सब में हूं। अगर तुम पशुओं और सभी मनुष्यों को प्रेम करोगे, तो मुझे पाने में कभी असफल नहीं होगे।' यहां 'मैं' का मतलब साई की स्थूल उपस्थिति से नहीं है। साई तो प्रभु के ही अवतार थे और गुरु भी, जो अंधकार से मुक्ति प्रदान करता है। ईश के प्रति भक्ति और साई गुरु के चरणों में श्रद्धा..यहीं से तो बनता है, इष्ट से सामीप्य का संयोग।

दैन्यता का नाश करने वाले साई ने स्पष्ट कहा था, 'एक बार शिरडी की धरती छू लो, हर कष्ट छूट जाएगा।' बाबा के चमत्कारों की चर्चा बहुत होती है, लेकिन स्वयं साई नश्वर संसार और देह को महत्व नहीं देते थे। भक्तों को उन्होंने सांत्वना दी थी, 'पार्थिव देह न होगी, तब भी तुम मुझे अपने पास पाओगे।'

अहंकार से मुक्ति और संपूर्ण समर्पण के बिना साई नहीं मिलते। कृपापुंज बाबा कहते हैं, 'पहले मेरे पास आओ, खुद को समर्पित करो, फिर देखो..।' वैसे भी, जब तक 'मैं' का व्यर्थ भाव नष्ट नहीं होता, प्रभु की कृपा कहां प्राप्त होती है। साई ने भी चेतावनी दी थी, 'एक बार मेरी ओर देखो, निश्चित-मैं तुम्हारी तरफ देखूंगा।' 1854 में बाबा शिरडी आए और 1918 में देह त्याग दी। चंद दशक में वे सांस्कृतिक-धार्मिक मूल्यों को नई पहचान दे गए। मुस्लिम शासकों के पतन और बर्तानिया हुकूमत की शुरुआत का यह समय सभ्यता के विचलन की वजह बन सकता था, लेकिन साई सांस्कृतिक दूत बनकर सामने आए। जन-जन की पीड़ा हरी और उन्हें जगाया, प्रेरित किया युद्ध के लिए। युद्ध किसी शासन से नहीं, कुरीतियों से, अंधकार से और हर तरह की गुलामी से भी! यह सब कुछ मानवमात्र में असीमित साहस का संचार करने के उपक्रम की तरह था। हिंदू, पारसी, मुस्लिम, ईसाई और सिख..हर धर्म और पंथ के लोगों ने साई को आदर्श बनाया और बेशक-उनकी राह पर चले।

दरअसल, साई प्रकाश पुंज थे, जिन्होंने धर्म व जाति की खाई में गिरने से लोगों को बचाया और एक छत तले इकट्ठा किया। घोर रूढि़वादी समय में अलग-अलग जातियों और वर्गो को सामूहिक प्रार्थना करने और साथ बैठकर 'चिलम' पीने के लिए प्रेरित कर साई ने सामाजिक जागरूकता का भी काम किया। वे दक्षिणा में नकद धनराशि मांगते, ताकि भक्त लोभमुक्त हो सकें। उन्हें चमत्कृत करते, जिससे लोगों की प्रभु के प्रति आस्था दृढ़ हो। आज साई की नश्वर देह भले न हो, लेकिन प्यार बांटने का उनका संदेश असंख्य भक्तों की शिराओं में अब तक दौड़ रहा है।

चण्डीदत्त शुक्ल

सोमवार, 2 अप्रैल 2007

िदलों का हाल क्या है न पूछो सनम
िफलहाल
रोटी की ही है िफक्र हमें