गुरुवार, 1 नवंबर 2007

प्रेम के प्रचारक: चैतन्य महाप्रभु

प्रेम के प्रचारक: चैतन्य महाप्रभु
18फरवरी, 1486, माघ माह की रात, पूरा खिला चांद यकायक ग्रहण का शिकार हो गया। हर ओर अंधकार छा गया, लेकिन तभी धरा एक और प्रकाश से नहा उठी। यह उजास थी गौरांग की, उनके स्वरूप की-कांति की।
पश्चिम बंगाल में कोलकाता से लगभग 75 मील दूर नादिया जिले के नबद्वीप कस्बे के निवासी जगन्नाथ मिश्र तथा सची देवी के घर जन्मे थे चैतन्य महाप्रभु। माता-पिता ने नाम दिया विश्वंभर। चैतन्य के जन्म से पहले आठ पुत्रियों का जन्म हो चुका था और उनका अवसान भी, इसलिए सशंकित मां ने शिशु चैतन्य को नीम वृक्ष को अर्पित कर दिया। गौरवर्ण देखकर पड़ोसियों-परिजनों ने पुकारना शुरू किया-गौरांग। गौरांग रुदन भी करते, तो हरि-हरि की ध्वनि उठती, इसीलिए सबने उन्हें गौरहरि भी कहा।
वासुदेव सर्वभूमा के विद्यालय में नीति का अध्ययन करने जाते थे, कुशाग्र बुद्धि के स्वामी चैतन्य। यहीं उनकी भेंट न्याय विषय के विद्वान लेखक रघुनाथ से हुई, जिन्होंने दिधीति नामक पुस्तक की रचना की थी। इसी बीच चैतन्य ने न्याय पर एक मीमांसा पुस्तक लिखी। उनकी विद्वत्ता का प्रभाव ही था कि रघुनाथ को लगा, न्याय विषय का उच्च लेखक बनने की उनकी इच्छा अधूरी रह जाएगी, लेकिन सरल हृदय चैतन्य को जब यह पता लगा, तो उन्होंने अपनी पांडुलिपि नष्ट कर दी। चैतन्य बोले, न्याय तो नीरस दर्शन है। मुझे इससे अधिक लाभ न होगा। सच है, जिसका मन जन्म से ही प्रभु चरणों में लग गया, उसे और कुछ कैसे भाएगा। चैतन्य भी ऐसे ही हैं। कान्हा के लिए राधारानी सरीखी भक्ति उनके मन में हमेशा मौजूद रहती है। व्याकरण, तर्क, साहित्य, दर्शन जैसी विधाओं में पारंगत होने के बाद भी चैतन्य ने प्रभु से लगन लगाई। वैसे, भक्ति का पूर्ण संचार गुरु से मिलने के बाद ही हो पाता है, क्योंकि यह विशिष्ट चेतना है। चैतन्य को भी यह गति थोड़े विलंब से मिली। चिंगारी तो उनके व्यक्तित्व में थी, लेकिन विस्फोट होना अभी बाकी था।
चैतन्य पढ़ ही रहे थे, तभी 14-15 साल की आयु में उनका विवाह वल्लभाचार्य की पुत्री लक्ष्मी से हुआ। वे समर्थकों और विद्वानों के साथ भ्रमण पर निकले। उद्देश्य था-अपने पांडित्य से बांग्ला समाज को प्रभावित करना और धनोपार्जन करना। चैतन्य ने लक्ष्य में सफलता भी प्राप्त की। घर आने पर पता चला कि पत्नी लक्ष्मी की सांप के काटने से मृत्यु हो गई। कुछ समय बाद चैतन्य ने विष्णुप्रिया से विवाह कर लिया।
संभवत: 1509 की बात होगी। 17 साल के गौरांग पिता का श्राद्ध करने के लिए गया गए, वहां गुरु के रूप में संन्यासी ईश्वर पुरी मिले। चैतन्य ने देखा कि गुरु हंसते, रोते, उछलते, नाचते और दोहराते, कृष्णा, कृष्णा! हरि बोल हरि बोल! चैतन्य को भी उन्होंने यही मंत्र जपने की सीख दी। भावुक चैतन्य ने कहा, आदरणीय गुरु! आपकी मुझ पर दया हुई। आपने मुझे संसार से विरक्त किया। मुझे कान्हा के लिए राधा के प्यार से परिचित कराया। मुझे भगवान कृष्ण के प्रति सच्चे प्रेम की ओर आगे बढ़ाइए। मैं कृष्ण प्रेम रस का पान करना चाहता हूं।
गुरु ने कहा, गौरांग, विद्वत्ता का प्रचार छोड़ो, प्रेम का प्रसार करो और चैतन्य इसी राह पर चल देते हैं। जड़ता छूटी, फिर घर भी छूट गया। चैतन्य हर पल यही गुहार लगाते, भगवान कृष्ण, मेरे पिता, तुम कहां हो, मैं तुम्हारे बिना नहीं जी सकता। तुम्ही मेरे सच्चे पिता हो, मां, मित्र, संबंधी और गुरु हो। भावुक गौरांग ने कहा, मैं वृंदावन जाऊंगा, लेकिन साथ के लोग उन्हें नबद्वीप लौैटा ले गए। अंतत: 24 साल की उम्र में केशव भारती ने उन्हें संन्यास का चोला पहनाया, फिर तो चैतन्य की यात्रा कान्हा नाम का प्रसार करने में ही बीती। नित्यानंद, सनातन, रूप, स्वरूप दामोदर, अद्वैताचार्य, श्रीबस, हरिदास, मुरारी, गदाधर सरीखे समर्थकों ने चैतन्य का समर्थन किया और उनके संग-संग देश भर में कान्हा नाम का प्रचार करते रहे।
चैतन्य ने जीवन के अंतिम 24 वर्ष उड़ीसा की पुरी में गुजारे। पुरी, जहां जगन्नाथ का मंदिर है, साधक चैतन्य के लिए इससे बेहतर आसरा और क्या होता? चैतन्य के आगे सबने सिर झुकाया। उन्होंने भी सबको सीने से लगाया। उड़ीसा नरेश प्रतापरुद्र भी चैतन्य की संकीर्तन टोली के संग झूमते। ये वे दिन थे, जब चैतन्य समाधि के विभिन्न रूपों में समा जाते। भक्ति की इससे उच्च स्थिति और कोई नहीं! संसार में रहकर भी संसार से दूरी।
वैसे, ऐसा नहीं कि चैतन्य का विरोध नहीं हुआ। उन्होंने पग-पग पर दुष्टाचरण का सामना किया, लेकिन हरदम उबरे-उभरे, क्योंकि उन्हें किसी से द्वेष न था और सहारा था प्रभु का। क्रूरता का जवाब वे प्रेम से देते और दुष्ट लज्जित होकर उनकी राह से हट जाते। गांव के धोबी समेत संपूर्ण ग्रामवासियों को हरिबोल की ताल पर नृत्य के लिए प्रेरित कर देना हो, छू लेने भर से कुष्ठ रोगी की पीड़ा दूर करना या फिर सिर के हल्के-से दबाव से जगन्नाथ रथ को गतिमान कर देना, चैतन्य का यह चमत्कार भक्ति की शक्ति से ही जन्मता है। वैसे, चैतन्य होना तभी संभव है, जब व्यक्ति समुद्र को भी प्रभु का के लिए स्वयं को डुबा देने को आतुर हो जाए। चैतन्य इसीलिए प्रभुरूप हुए। वे कहते हैं, प्रभुनाम सुमिरन से ही कलियुग में शांति और प्रेम का आगमन होगा। 14 जून, 1533 को चैतन्य ने देह भले छोड़ दी हो, लेकिन उनकी धुन पर भक्तों के मन हरदम झूमते और प्रभु से गुहार लगाते रहेंगे, नंद गोपाल हम तुम्हारे सेवक हैं। हम जन्म और मृत्यु के अंधसमुद्र में पड़ गए हैं। कृपया हमें उठाएं और अपने चरणकमलों में स्थान दें।
चण्डीदत्त शुक्ल

प्यार का संदेश दे गए संत तुकाराम

प्यार का संदेश दे गए संत तुकाराम
गली-गली में, घर-घर तक विट्ठल नाम की गूंज पहुंचाते लोकगायक और संतकवि तुकाराम का नाम आते ही आंखों के सामने यही चित्र उभरता है। कवि, जिनके होंठों पर है विट्ठल-विट्ठल की गूंज, संत, जो प्रभु के अलावा और कुछ नहीं सोचते।
तुकाराम ऐसे ही हैं, सरल और निश्छल। ईश की राह पर चलना ही था उनका जीवन। तुकाराम, यानी भक्ति का राग छेड़ते, प्रभु की बात करते साधु, लेकिन वे कबीर सरीखे क्रांतिकारी भी हैं। कबीर ने हरदम पाखंड का, जड़ता का, थोथे कर्मकांड का विरोध किया। तुका ने भी यही राह पकड़ी। दोनों का जीवन अंधविश्वास से जूझते हुए बीता।
बहुत-से पुरोहितों ने संत तुका का प्रतिरोध किया, क्योंकि वे अभंग रचनाओं में पाखंड और कर्मकांड का उपहास उड़ाते थे। कुछ ने तुका के अभंग रचनाओं की पोथी नदी में फेंक दी और धमकी दी, तुम्हें जान से मार देंगे। पुरोहितों ने व्यंग्य करते हुए कहा, यदि तुम प्रभु के वास्तविक भक्त हो, तो अभंग की पांडुलिपि नदी से बाहर आ जाएंगी। आहत तुका भूख हड़ताल पर बैठ गए और अनशन के 13वें दिन नदी की धारा के साथ पांडुलिपि तट पर आ गई। आश्चर्य यह कि कोई पृष्ठ गीला भी नहीं था, नष्ट होना तो दूर की बात!
संतकवि तुकाराम पुणे के देहू कस्बे के छोटे-से काराबोरी परिवार में 17वीं सदी में जन्मे थे। उन्होंने ही महाराष्ट्र में भक्ति आंदोलन की नींव डाली। उनके जन्मवर्ष के बारे में कई धारणाएं हैं, लेकिन चार विकल्प खासतौर पर प्रचलित हैं-1568, 1577, 1598 और 1608। संत का देहावसान 1650 में हुआ।
तुकाराम ने दो विवाह किए। पहली पत्नी थीं रखुमाबाई। अभावों से जूझते हुए वे पहले रोगग्रस्त हुई, फिर उनका स्वर्गवास हो गया। दूसरी पत्नी थीं जीजाबाई। लोग उन्हें अवली भी कहते। जीजाबाई हरदम उलाहना देतीं, कुछ कमाओगे भी या ईश भजन ही करते रहोगे। तुका की तीन संतानें हुई, संतू (महादेव), विठोबा और नारायण। सबसे छोटे विठोबा भी पिता की तरह भक्त ही थे।
जीवन में दुविधाएं तुकाराम की लगन पर विराम न लगा पाई। भगवत भजन उनके कंठ से अविराम बहते। वे कृष्ण के सम्मान में निशदिन गीत गाते और झूमते। हालांकि बाद में उन्होंने अपनी आर्थिक स्थिति भी सुधार ली और अंतत: महाजन बने।
तुका ने एक रात स्वप्न में 13वीं सदी के चर्चित संत नामदेव और स्वयं विट्ठल के दर्शन किए। संत ने तुका को निर्देश दिया, तुम अभंग रचो और लोगों में ईश्वर भक्ति का प्रसार करो।
तुका कई बार अवसाद से भी घिरे। एक क्षण ऐसा आया, जब उन्होंने प्राणोत्सर्ग की ठानी, लेकिन इसी पल उनका ईश्वर से साक्षात्कार हुआ। वह दिन था और फिर सारा जीवन..तुका कभी नहीं डिगे। उनका दर्शन स्पष्ट था, चुपचाप बैठो और नाम सुमिरन करो। वह अकेला ही तुम्हारे सहारे के लिए काफी है।
ग्रंथ पाठ और कर्मकांड से कहीं दूर तुका प्रेम के जरिए आध्यात्मिकता की खोज को महत्व देते। उन्होंने अनगिनत अभंग लिखे। कविताओं के अंत में लिखा होता, तुका माने, यानी तुका ने कहा..। उनकी राह पर चलकर वर्करी संप्रदाय बना, जिसका लक्ष्य था समाजसेवा और हरिसंकीर्तन मंडल। इसके अनुयायी सदैव प्रभु सुमिरन करते।
तुका का ईश्वर से निरंतर संवाद होता था। देह त्यागने से पहले ही उन्होंने पत्नी को बता दिया था, अब मैं बैकुंठ जाऊंगा। पत्नी को लगा कि एकदम अच्छे-भले तुका ऐसे ही कुछ कह रहे होंगे, लेकिन धीरे-धीरे देहू में यह खबर फैल गई। लोगों ने देखा कि आकाश में ढेरों विमान हैं और तुका उनमें से एक पर चढ़कर सदेह वैकुंठ गमन कर रहे हैं।
तुका ने कितने अभंग लिखे, इनका प्रमाण नहीं मिलता, लेकिन मराठी भाषा में हजारों अभंग तो लोगों की जुबान पर ही हैं। पहला प्रकाशित रूप 1873 में सामने आया। इस संकलन में 4607 अभंग संकलित किए गए थे। सदेह तुका भले संसार में नहीं हैं, लेकिन उनके अभंग जन-जन के कंठ में बसे हैं और यह संदेश भी, प्रभु को अपने जीवन का केंद्र बनाओ। प्यार की राह पर चलो। दीनों की सेवा करो और देखोगे कि ईश्वर सब में है।
चण्डीदत्त शुक्ल

अपना हक पहचानें

अपना हक पहचानें 

लता शर्मा ने पिछले दिनों एक नामी रिटेल स्टोर से कुछ शॉपिंग की। स्टोर से उन्हें एक ईनामी कूपन दिया गया। सेल्सगर्ल ने बताया, 'हम लकी ड्रॉ का आयोजन करेंगे और ईनाम आपके नाम निकल सकता है।' लता ने कूपन रख लिया। कुछ दिन बाद वह फिर उसी स्टोर में खरीदारी करने पहुंचीं। उन्होंने सेल्सगर्ल से कूपन के बारे में पूछा, 'ड्रॉ निकल गया?' जवाब मिला, 'हमने वह स्कीम वापस ले ली थी।' लता को संतोषजनक उत्तर नहीं मिला। वैसे, कूपन पर भी कोई विवरण अंकित नहीं था। क्या लता के साथ ठगी हुई? हां, उसके साथ ठगी ही हुई। उपभोक्ता कानून में इसे 'अनफेयर ट्रेड प्रैक्टिस' कहा गया है। खैर, यह तो एक लुभावना वादा भर था। उपभोक्ता कदम-कदम पर ठगी का शिकार हो जाते हैं, लेकिन ऐसे में घबराने की जरूरत नहीं। जरूरत है थोड़ी-सी समझदारी की।
सच तो यह है कि आप कोई वस्तु खरीदती हैं या किसी सेवा का सशुल्क लाभ हासिल करती हैं, तो आप उपभोक्ता हैं और वस्तु अथवा सेवा के संबंध में पूरी गुणवत्ता प्राप्त करने की हकदार भी। ऐसे में अगर आपको सेवा या वस्तु की क्वालिटी में कोई कमी नजर आए, तो हिचकिचाएं नहीं। आपके हितों की सुनवाई के लिए सरकार की ओर से उपभोक्ता फोरम का गठन किया गया है। वस्तु की गुणवत्ता अथवा सेवा में कमी होने पर आप उपभोक्ता फोरम के पास शिकायत दर्ज करा सकती हैं। शिकायत की वजह कुछ भी हो सकती है। चाहे आपको एमआरपी से अधिक कीमत पर कोई वस्तु बेची गई हो, या गारंटी अवधि में शिकायत होने पर एक्शन न लिया गया हो। इस संबंध में उपभोक्ता फोरम में आप अपना दावा दायर कर सकती हैं। हालांकि इसके लिए ज्यूरिसडिक्शन निर्धारित किए गए हैं। मसलन 20 लाख तक रुपये तक की शिकायत हो, तो आपको जिला / क्षेत्रीय स्तर पर उपभोक्ता विवाद निवारण फोरम में शिकायत दर्ज करानी होगी। आवेदन पत्र में आपको अपना परिचय, सेवादाता / विक्रेता / संबंधित कंपनी का परिचय, संक्षिप्त शिकायत, संबंधित दस्तावेज, शिकायत के निवारण के लिए स्वयं द्वारा किए गए प्रयासों की सूची और क्या हल चाहती हैं, इसका ब्योरा देना होगा।
क्षेत्रीय स्तर पर निर्णय होने के बाद शिकायतकर्ता अथवा द्वितीय पक्ष स्टेट फोरम में अपील कर सकते हैं। 20 लाख से ज्यादा का दावा होने पर स्टेट फोरम में ही सुनवाई होती है। यदि एक करोड़ रुपये का दावा है, तो आपको राष्ट्रीय उपभोक्ता फोरम के पास शिकायत दर्ज करानी होगी। यही नहीं, स्टेट ़फोरम के निर्णय के संबंध में भी राष्ट्रीय फोरम में अपील दर्ज करा सकती हैं। फोरम के समक्ष अपनी शिकायत दर्ज कराने के लिए आपको एक सादे कागज पर आवेदन लिखना होगा। इसके लिए कोई स्टांप भी नहीं लगाना होता। यही नहीं, उपभोक्ता मामले की सुनवाई के लिए अधिवक्ता की सेवाएं लेना भी अनिवार्य नहीं है। आवेदन के साथ एक शपथपत्र संलग्न करना होगा, जिससे आपकी शिकायत की सत्यता सिद्ध हो। किन्हीं कारणों से फोरम के आदेश पर संबंधित पक्ष की ओर से अमल न हो, तो आपको पुन: उसी फोरम में आवेदन करना चाहिए, जिसके समक्ष आपने शिकायत की थी। किसी भी विवाद की स्थिति में आप दो साल के अंदर फोरम की सहायता ले सकती हैं, जबकि अपील करने के लिए केवल 30 दिन का समय ही मिलता है। हालांकि उपभोक्ता मामलों में शिकायत पर सुनवाई तभी संभव हो पाती है, जब आपके पास पर्याप्त साक्ष्य और दस्तावेज हों। अक्सर लोग खरीदारी करते समय रसीद आदि लेना भूल जाते हैं। मूल्य, छूट और गारंटी के बारे में संतुष्ट होने के बाद ही खरीदारी करें और रसीद जरूर लें।
आभूषणों की खरीद में विवाद का कारण भी यही होता है। कई बार 20 कैरेट बताकर 16 कैरेट के स्वर्ण आभूषणों की बिक्री कर दी जाती है। चूंकि कुछ आभूषणों पर बैच नंबर तथा गुणवत्ता संबंधी चिन्ह अंकित नहीं होते व उनका रसीद में भी हवाला नहीं दिया जाता, इसलिए ग्राहक की शिकायत बेमानी हो जाती है। इसलिए सभी दस्तावेज संभाल कर रखें।
(दिल्ली हाईकोर्ट के अधिवक्ता तथा समाजसेवी संस्था 'नीपा' के महासचिव बीएमडी अग्रवाल से बातचीत पर आधारित)
चण्डीदत्त शुक्ल

झुकना नहीं है आदत में

 झुकना नहीं है आदत में
हर दिन पंद्रह घंटे कड़ी मेहनत करने वाले रतन टाटा देश के सबसे बड़े संगठनकर्ता हैं, जिन्होंने कुटीर उद्योगों की भारतीय संस्कृति को आधुनिक तकनीक से लैस विशाल कारखानों के संजाल में संजोया और लाखों लोगों को सुखमय व संपूर्ण जीवन जीने का रास्ता दिखाया।
यूं तो 1868 में ही जमशेद जी नुसेरखान जी टाटा द्वारा स्थापित हाउस ऑफ टाटा ने बाद में टाटा समूह के रूप में स्वदेशी उद्योगों को सम्मान और स्थापना दिला दी थी, लेकिन 1991 में जब इसकी बागडोर रतन टाटा के हाथ में आई, तब तक स्थितियां बदल चुकी थीं। तेज प्रतिस्पद्र्धा और उदारीकरण के दौर में 10.627 करोड़ रुपए टर्नओवर के टाटा समूह की कमान संभालने के बाद रतन टाटा को बाजार की होड़ से तो जूझना ही था। कमान संभालने के बाद उन्होंने ग्रुप कंपनियों के प्रबंध निदेशकों की सेवानिवृत्ति की आयु 65 वर्ष तय कर दी।
आत्मविश्वास, निर्भीकता और कड़ा परिश्रम..इन्
्हीं के दम पर रतन टाटा ने 1991 में तकरीबन 11 हजार करोड़ रुपए के टर्नओवर को 2005 तक 61 हजार करोड़ रुपए के सालाना कारोबार तक पहुंचा दिया। दरअसल, 1983 में ही रतन ने आंक लिया था कि टाटा समूह में लचीलापन बढ़ रहा है और जब 54 वर्ष की उम्र में उन्हें नेतृत्व का जिम्मा मिला, तो उन्होंने निढाल हो रहे ग्रुप की तस्वीर बदल दी।
1937 में जन्मे रतन ने शुरुआती पढ़ाई केलवियन स्कूल, मुंबई से की और बाद में यूएसए की कोरनेल यूनिवर्सिटी से आर्किटेक्चर में ग्रेजुएशन किया। अमेरिका में जॉन्स एंड इमोंस कंपनी में उन्होंने इंटर्नशिप भी की। 1962 में रतन भारत लौटे और 1971 में 40 लाख रुपए घाटे वाली कंपनी नेल्को की कमान संभाली। कुछ दिन बाद कंपनी में तालाबंदी भी हो गई, लेकिन रतन की आदत में झुकना कहां था? ताले खुले और नेल्को में तीन गुना उत्पादन होने लगा। उनकी सजगता का अहसास एक नव वर्ष संदेश से लगाया जा सकता है, हमें ज्यादा आक्रामक होना होगा। उत्पादों की क्वालिटी और सेवा का स्तर अधिक बेहतर बनाना होगा।
स्पष्ट है—कुछ नया, कुछ खास करने का जुनून रतन टाटा पर हमेशा छाया रहता है। ऐसा न होता, तो ट्रक बनाने वाली टाटा मोटर्स खूबसूरत इंडिका कैसे तैयार कर पाती? इस सबके पीछे बेशक है एक ही शख्सियत—रतन टाटा। यूं ही कहा भी नहीं जाता, टाटा आधुनिक भारत का कोहिनूर है और टाटा के रतन हैं—रतन टाटा।
चण्डीदत्त शुक्ल

गैरेज से शिखर तक

गैरेज से शिखर तक

15देश, 100 से ज्यादा कार्यालय, 30 हजार से ज्यादा कर्मचारी-अधिकारी और दुनिया भर के कंप्यूटर व्यवसायियों, उपभोक्ताओं का विश्वास..शिव नाडार अगर सबकी अपेक्षाओं पर खरे उतरते हैं, तो इसके केंद्र में उनकी मेहनत, योजना और सूझबूझ ही है।
अगस्त 1976 में एक गैरेज में उन्होंने एचसीएल इंटरप्राइजेज की स्थापना की, तो 1991 में वे एचसीएल टेक्नोलॉजी के साथ बाजार में एक नए रूप में हाजिर हुए। पिछले तीन दशक में भारत में तकनीकी कंपनियों की बाढ़-सी आ गई है, लेकिन एचसीएल को उत्कर्ष तक ले जाने के पीछे शिव नाडार का नेतृत्व ही प्रमुख है। नाडार की कंपनी में बड़े पद तक पहुंचना भी आसान नहीं होता। शिव ने एक बार कहा था, मैं नेतृत्व के अवसर नहीं देता, बल्कि उन लोगों पर निगाह रखता हूं, जो कमान संभाल सकते हैं। एचसीएल में उन्होंने इसका व्यावहारिक परीक्षण भी किया है। उनके कई कर्मचारी एक के बाद एक जिम्मेदारियां सं 60 साल का होने के बावजूद वे युवाओं से भी तेज गति के साथ काम करते हैं। आइए मिलते हैं 16 हजार, 625 करोड़ की कंपनी हिंदुस्तान कंप्यूटर्स लिमिटेड (एचसीएल) के सीईओ और चिर युवा शिव नाडार से..
ंभालते हुए जब सफल साबित हुए, तो शिव ने उन्हें बड़े पद देने में कभी हिचक नहीं दिखाई। एचसीएल की विभिन्न शाखाओं, मसलन-इन्फोसिस्टम्स, फ्रंटलाइन सॉल्यूशंस, कॉमेट और एचसीएल अमेरिका के लिए उच्चाधिकारी चुनने में नाडार ने इसी रणनीति का इस्तेमाल किया है। कुछ साल पहले फो‌र्ब्स की सूची में शामिल धनी भारतीयों में से एक, नाडार 1968 तक तमिलनाडु की डीसीएम कंपनी में काम करते थे। उन्होंने अपने साथ के छह लोगों को प्रेरणा दी, क्यों न एक कंपनी खोली जाए, जो ऑफिस इक्विपमेंट्स बनाए। फलत: 1976 में एचसीएल की नींव पड़ी। 1982 में जब आईबीएम ने एचसीएल को कंप्यूटर मुहैया कराना बंद कर दिया, तब नाडार और उनके साथियों ने पहला कंप्यूटर भी बना लिया। फिलहाल, हालत यह है कि एचसीएल की 80 फीसदी आमदनी कंप्यूटर और ऑफिस इक्विपमेंट्स से ही होती है। फरवरी 1987 में चर्चित पत्रिका टाइम ने लिखा था, पूरी दुनिया नाडार की सोच और भविष्य के लिए तैयार किए गए नेटवर्क को देखकर आश्चर्यचकित और मुग्ध है। दरअसल, नाडार का साम्राज्य अर्थशास्त्र और शासन को नई परिभाषा देने वाला है। वैसे, तकरीबन तीन दशक पहले जब नाडार ने कंपनी स्थापित की थी, तो यह एक दांव की तरह ही था। तमिलनाडु में पहले नौकरी छोड़ना और बाद में दिल्ली में क्लॉथ मिल की जमी-जमाई जॉब को भी ठोकर मार देना..ऐसा साहस नाडार ही कर सकते थे, लेकिन वे न सिर्फ कामयाब हुए, बल्कि उन्होंने साथियों और निवेशकों का भरोसा भी जीता। मधुरभाषी नाडार बताते हैं, पिछले तीन-चार दशक में मैंने देखा है कि आईटी इंडस्ट्री का काफी विकास हुआ है। खासकर, हार्डवेयर, सॉफ्टवेयर, सर्विसेज, सॉल्यूशंस, नेटवर्किग, कम्युनिकेशन, इंटरनेट और आईटी इन्फ्रॉस्ट्रक्चर की दिशा में काफी संभावनाएं बढ़ी हैं। मैंने समय रहते अवसर पहचान लिया और इसीलिए कामयाब भी हुआ।
उनकी सोच का लोहा माइक्रोसॉफ्ट के संस्थापक बिल गेट्स भी मानते हैं, तभी तो 1996 में जब वे भारत आए, तब उन्होंने कंप्यूटर की दुनिया से जुड़े लोगों में सबसे पहले शिव नाडार से मुलाकात की। नाडार के जीवन में एक और बात राहत देने वाली है..वे कारोबार में कितने ही व्यस्त क्यों न हों, पत्नी किरण और बेटी रोशनी के लिए वक्त निकालना कभी नहीं भूलते।
इन दिनों यूएस बेस्ड एनआरआई बन चुके नाडार ने बेहतर योजना, अनुशासन और टीमवर्क की बदौलत जो सफलता हासिल की है, वह चौंकाती तो है, उस राह पर बढ़ने की प्रेरणा भी देती है।
चण्डीदत्त शुक्ल

शस्त्र और शास्त्र के महारथी परशुराम

शस्त्र और शास्त्र के महारथी परशुराम

हमहि तुम्हहि सरिबरि कस नाथा / कहहु न कहां चरन कहं माथा / राम मात्र लघु नाम हमारा / परसु सहित बड़ नाम तोहारा..। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम जिनका सादर नमन करते हों, उन शस्त्रधारी और शास्त्रज्ञ भगवान परशुराम की महिमा का वर्णन शब्दों की सीमा में संभव नहीं। वे योग, वेद और नीति में निष्णात थे, तंत्रकर्म तथा ब्रह्मास्त्र समेत विभिन्न दिव्यास्त्रों के संचालन में भी पारंगत थे, यानी जीवन और अध्यात्म की हर विधा के महारथी।
विष्णु के छठे अवतार परशुराम पशुपति का तप कर 'परशु' धारी बने और उन्होंने शस्त्र का प्रयोग कुप्रवृत्तियों का दमन करने के लिए किया। कुछ लोग कहते हैं, परशुराम ने जाति विशेष का सदैव विरोध किया, लेकिन यह तार्किक सत्य नहीं। तथ्य तो यह है कि संहार और निर्माण, दोनों में कुशल परशुराम जाति नहीं, अपितु अवगुण विरोधी थे। गोस्वामी तुलसीदास के शब्दों में 'जो खल दंड करहुं नहिं तोरा/भ्रष्ट होय श्रुति मारग मोरा' की परंपरा का ही उन्होंने भलीभांति पालन किया। परशुराम ने ऋषियों के सम्मान की पुनस्र्थापना के लिए शस्त्र उठाए। उनका उद्देश्य जाति विशेष का विनाश करना नहीं था। यदि ऐसा होता, तो वे केवल हैहय वंश को समूल नष्ट न करते। जनक, दशरथ आदि राजाओं का उन्होंने समुचित सम्मान किया। सीता स्वयंवर में श्रीराम की वास्तविकता जानने के बाद प्रभु का अभिनंदन किया, तो कौरव-सभा में कृष्ण का समर्थन करने में भी परशुराम ने संकोच नहीं किया। कर्ण को श्राप उन्होंने इसलिए नहीं दिया कि कुंतीपुत्र किसी विशिष्ट जाति से संबंध रखते हैं, वरन् असत्य वाचन करने के दंड स्वरूप कर्ण को सारी विद्या विस्मृत हो जाने का श्राप दिया था। कौशल्या पुत्र राम और देवकीनंदन कृष्ण से अगाध स्नेह रखने वाले परशुराम ने गंगापुत्र देवव्रत (भीष्म पितामह) को न सिर्फ युद्धकला में प्रशिक्षित किया, बल्कि यह कहकर आशीष भी दी कि संसार में किसी गुरु को ऐसा शिष्य पुन: कभी प्राप्त न होगा!
पौराणिक मान्यता के अनुसार अक्षय तृतीया को ही त्रेता युग का प्रारंभ हुआ था। इसी दिन, यानी वैशाख शुक्ल तृतीया को सरस्वती नदी के तट पर निवास करने वाले ऋषि जमदग्नि तथा माता रेणुका के घर प्रदोषकाल में जन्मे थे परशुराम।
परशुराम के क्रोध की चर्चा बार-बार होती है, लेकिन आक्रोश के कारणों की खोज बहुत कम हुई है। परशुराम ने प्रतिकार स्वरूप हैहयवंश के कार्तवीर्य अर्जुन की वंश-बेल का 21 बार विनाश किया था, क्योंकि कामधेनु गाय का हरण करने के लिए अर्जुनपुत्रों ने ऋषि जमदग्नि की हत्या कर दी थी। भगवान दत्तात्रेय की कृपा से हजार भुजाएं प्राप्त करने वाला कार्तवीर्य अर्जुन दंभ से लबालब भरा था। उसके लिए विप्रवध जैसे खेल था, जिसका दंड परशुराम ने उसे दिया। ग्रंथों में यह भी वर्णित है कि सहस्त्रबाहु ने परशुराम के कुल का 21 बार अपमान किया था। परशुराम के लिए पिता की हत्या का समाचार प्रलयातीत था। उनके लिए ऋषि जमदग्नि केवल पिता ही नहीं, ईश्वर भी थे। इतिहास प्रमाण है कि परशुराम ने गंधर्वो के राजा चित्ररथ पर आकर्षित हुई मां रेणुका का पिता का आदेश मिलने पर वध कर दिया था। जमदग्नि ने पितृ आज्ञा का विरोध कर रहे पुत्रों रुक्मवान, सुखेण, वसु तथा विश्वानस को जड़ होने का श्राप दिया, लेकिन बाद में परशुराम के अनुरोध पर उन्होंने दयावश पत्नी और पुत्रों को पुनर्जीवित कर दिया।
पशुपति भक्त परशुराम ने श्रीराम पर भी क्रोध इसलिए व्यक्त किया, क्योंकि अयोध्या नरेश ने शिव धनुष तोड़ दिया था। वाल्मीकि रामायण के बालकांड में संदर्भ है कि भगवान परशुराम ने वैष्णव धनुष पर शर-संधान करने के लिए श्रीराम को कहा। जब वे इसमें सफल हुए, तब परशुराम ने भी समझ लिया कि विष्णु ने श्रीरामस्वरूप धारण किया है।
परशुराम के क्रोध का सामना तो गणपति को भी करना पड़ा था। मंगलमूर्ति ने परशुराम को शिव दर्शन से रोक लिया था, रुष्ट परशुराम ने उन पर परशु प्रहार किया, जिससे गणेश का एक दांत नष्ट हो गया और वे एकदंत कहलाए।
अश्वत्थामा, हनुमान और विभीषण की भांति प्रभुस्वरूप परशुराम के संबंध में भी यह बात मानी जाती है कि वे चिरजीवी हैं। श्रीमद्भागवत महापुराण में वर्णित है, 'अश्वत्थामा बलिव्र्यासो हनूमांश्च विभीषण:/कृप: परशुरामश्च सप्तैते चिरजीविन:'।
ऐसे समय में, जब शास्त्र की महिमा को पुन: मान्यता दिलाने की आवश्यकता है और शस्त्र का निरर्थक प्रयोग बढ़ चला है, भगवान परशुराम से प्रेरणा लेकर संतुलन बनाने की आवश्यकता है, ताकि मानव मात्र का कल्याण हो सके और मानवता त्राहि-त्राहि न करे।
चण्डीदत्त शुक्ल

योग्यता से पाई ऊंचाई

योग्यता से पाई ऊंचाई

तेज-तर्रार, लेकिन नम्र हैं। खासे पढ़े-लिखे और नई पीढ़ी को बढ़ावा देने वाले, यानी महिंद्रा एंड महिंद्रा के मैनेजिंग डायरेक्टर आनंद महिंद्रा। हार्वर्ड सरीखे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय से उन्होंने बिजनेस मैनेजमेंट और आ‌र्ट्स की डिग्री भी हासिल की है।
1981 में आनंद भारत लौटे। सबसे पहले उन्होंने महिंद्रा युगिन स्टील कंपनी लिमिटेड के साथ बतौर एक्जिक्यूटिव असिस्टेंट काम शुरू किया। बाद में वे कंपनी के फाइनेंस डायरेक्टर बने और 1989 में उन्हें प्रेसिडेंट व डिप्टी मैनेजिंग डायरेक्टर की जिम्मेदारी सौंपी गई। 4 अप्रैल, 1991 को आनंद महिंद्रा एंड महिंद्रा के डिप्टी मैनेजिंग डायरेक्टर की कुर्सी पर बैठे। कुछ ही साल में कंपनी के शीर्ष पद पर पहुंचे आनंद की शुरुआत को पहले गंभीरता से नहीं लिया गया। आनंद की कोशिशों को ज्यादातर लोगों ने एक व्यावसायिक परिवार के लाडले की शुरुआत का नाम दिया।
हालांकि म बेशक आनंद महिंद्रा सफल उद्योगपति हैं, लेकिन इससे अलग उनकी चर्चा युवा प्रतिभाओं को अवसर प्रदान करने वाले काबिल और संवेदनशील इंसान के रूप में भी होती है..
मुंबई के महिंद्रा टॉवर में तैयार की गई योजनाओं को सफलता के साथ लागू कर आनंद ने साबित कर दिया कि उनकी नियुक्ति महज पारिवारिक उपहार नहीं है, बल्कि वे बिजनेस के जानकार व उपयुक्त व्यक्ति हैं। 1994 में आनंद के अंकल केशब के कंपनी के कामकाज से किनारा कर लेने के बाद आनंद पर दोहरी जिम्मेदारी आ गई-योजनाएं बनाने और उन्हें लागू करने के साथ-साथ सफलता के साथ कामकाज चलाने की। उन्होंने एक साक्षात्कार में बताया है, पहले हम जीप और ट्रैक्टर की बिक्री भर करते थे, लेकिन 1994 के बाद हमने योजना बनाई कि कारोबार को और विस्तार देना होगा।
2002 में आनंद ने देश की अत्याधुनिक स्पो‌र्ट्स वेहिकल स्कॉर्पियो लॉन्च की और उसे लोगों के बीच प्रिय बनाने का काम भी किया।
इसके अलावा कोटक महिंद्रा फाइनेंस व हार्वर्ड बिजनेस स्कूल एसोसिएशन ऑफ इंडिया की स्थापना समेत आनंद ने कई ऐसे काम किए, जिन्होंने देश की अर्थव्यवस्था को और मजबूत बना दिया। गौर करने वाली बात यह है कि आर्थिक विषयों पर आनंद लगातार लिखते-पढ़ते भी रहते हैं। नेशनल स्टॉक एक्सचेंज के निदेशक के रूप में उनकी सक्रियता भी लोगों को अब तक याद है। वे कन्फेडरेशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्री (सीआईआई) के प्रेसिडेंट बने और एग्रिकल्चर काउंसिल के कामकाज पर खास ध्यान देकर खेतीबाड़ी की दुनिया को स्टैब्लिश करने का अभियान छेड़ दिया। इसी तरह केसी महिंद्रा एजुकेशनल ट्रस्ट के ट्रस्टी और महिंद्रा युनाइटेड व‌र्ल्ड कॉलेज ऑफ इंडिया के गवर्नर के रूप में आनंद कुछ रिपो‌र्ट्स पढ़कर ही संतुष्ट नहीं हो जाते, बल्कि नई प्रतिभाओं को उचित मंच देने की कोशिश में लगातार जुटे रहते हैं। खुशी की बात यह है कि आनंद अब भी न थके हैं, न रुके हैं, बल्कि चेन्नई में एक रिअॅल इस्टेट प्रोजेक्ट को अंतिम रूप देने में जुटे हैं। पिछले दिनों एक मीडिया प्रतिनिधि से बातचीत में उन्होंने माना कि टीवी कैमरे उनकी गर्दन के पास रहते हैं और उनसे बचने के लिए वे किसी स्टंटमैन की तरह इधर-उधर भागते रहते हैं, लेकिन यह कोशिश मीडिया से अरुचि के कारण नहीं है। सच तो यह है कि स्टार बनने से ज्यादा जरूरी उनके लिए समय पर अपना काम पूरा करना है।
रिअॅल इस्टेट, हॉस्पिटैलिटी मैनेजमेंट, ट्रैक्टर-जीप निर्माण, फाइनेंस, समाजसेवा..जाने कितने ही अलग-अलग क्षेत्रों में कीर्तिमान स्थापित करने वाले आनंद ने बहुत कम समय में साबित कर दिया है कि उनकी कामयाबी कोई घरेलू उपहार नहीं है, बल्कि यह सफलता उन्होंने काबिलियत के दम पर हासिल की है।
चण्डीदत्त शुक्ल