सोमवार, 30 अप्रैल 2007

मायानंद मिश्र

रचनाकार साहित्य रचें, कपड़े न उतारें
भिंची मुट्ठियां, गुस्से से थरथराते होंठ और दूसरे ही पल चेहरे पर थिरकती मुस्कान..यह सब तभी देखने को मिलता है, जब हम मायानंद मिश्र जैसे तपे-सच्चे साहित्यकार से बात कर रहे हों। सिर्फ एक साल पहले तक ब्रिटिश जमाने के जर्जर पुल के सहारे विकराल कोसी नदी पार करके शहर तक जाना जिस बनैनिया गांव के लोगों के लिए दुष्कर था, वहीं के मायानंद वैदिक काल के आख्यानों की पुन : प्रस्तुति रचने के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित होंगे, कौन सोच सकता है। हालांकि, बनैनिया पिछले साल बाढ़ का शिकार होकर अपना अस्तित्व खो बैठा है लेकिन वहां के अभाव भरे संसार से चमत्कार बनकर उभरे मायानंद ही हैं वह शख्स, जिन्होंने बनैनिया की बौद्धिकता को पूरे संसार में स्थापित किया। 70 साल की उम्र में भी मायानंद किसी युवा से अधिक ऊर्जावान हैं। प्रस्तुत हैं साहित्य की दुनिया में सियासत की वजह, यौन स्वच्छंदता की वकालत करते भोंडे बयानों की जरूरत, साहित्य की प्रासंगिकता और मिश्र के विचार-संसार में होती उथल-पुथल की बाबत की गई बातचीत के प्रमुख अंश : राजकमल चौधरी आपके अभिन्न मित्र थे। कहते हैं, हिंदी साहित्य जगत के कुछ प्रसिद्ध साहित्यकारों ने उन्हें अस्त करने की बहुत कोशिश की। आजकल अदब की दुनिया में यह सब धड़ल्ले से हो रहा है। प्रतिभाएं अक्सर काल-कवलित हो जाती हैं। कभी अतिशय प्रशंसा के कारण तो कभी अत्यधिक निंदा से कुचल जाती हैं। आप इस सबको किस दृष्टि से देखते हैं। राजकमल को अस्त करने की बात से मैं सहमत नहीं हूं। हालांकि हो भी सकता है कि उन्हें दबाने-कुचलने की कोशिश की गई हो लेकिन वह तो चमकता हुआ सूर्य था, उसे कौन अस्त कर सकता है। मैं वैसे भी सहरसा में था। यहां क्या हुआ, मैं कैसे बताऊं, लेकिन एक बात तो स्पष्ट है, वह यह कि प्रतिभा को कोई रोक नहीं सकता। मेधा अपनी जगह खुद बनाती है। मुझे जो गद्यकार सबसे अधिक प्रिय हैं, उनमें महादेवी, दिनकर और राजकमल प्रमुख हैं। अब इन तीनों के पीछे कोई सपोर्ट नहीं था लेकिन कौन दबा पाया इन्हें? अब प्रतिभाओं के दमन के पीछे कारण तो एक ही है..वरिष्ठों को कहीं संदेह हो सकता है कि वे दब न जाएं, इसलिए भी प्रतिभाओं को दबाने-कुचलने की कोशिश की जाती है। कभी-कभी नए लोगों का कुछ नुकसान भी होता है लेकिन लंबे समय तक मेधा को दबाया नहीं जा सकता। वह अपना स्थान बना ही लेती है। साहित्य की सौंदर्यशास्त्रीय परिभाषा जो भी दी जाती रही हो, आज तो विद्रूपता हर जगह नजर आती है। अगर उठने-गिरने, लैगपुलिंग की बात छोड़ भी दें तो विचारधाराओं के विभाजन के आधार पर साहित्य में कई खांचे बना दिए गए हैं। कोई मा‌र्क्स से प्रभावित होकर साहित्य में राजनीतिक अनुशीलन प्रस्तुत कर रहा है तो कोई स्त्री विमर्श के नाम पर सारी दुनिया के पुरुषों के प्रति नफरत की खाई खोदवाने में लगा है? आप क्या सोचते हैं? यह सब प्रतिबद्धता की बात है। कुछ मा‌र्क्सवाद से प्रभावित हैं तो कुछ अन्य किसी पंथ, वाद या विचारधारा से। लेकिन एक बात साफ जान लीजिए। श्रेष्ठ साहित्य विचारधारा से प्रभावित नहीं होता। वह समाज के वंचित, दबे-कुचले लोगों की समस्याओं को संवेदनशीलता के साथ उठाने का काम करता है। किसी का दुख सांझा करने, उसके लिए समस्याओं का हल तलाशने का काम करने के लिए किसी राजनीतिक विचारधारा से आबद्ध होने की जरूरत मैं तो नहीं समझता। सच यह है कि जब आप किसी खास विचारधारा से प्रतिबद्ध होकर वर्णन करने लगते हैं तो रंगीन चश्मा पहनकर समाज की एकांगी व्याख्या करने लगते हैं। यह किसी दृष्टि से हितकारी नहीं होता। जहां तक स्त्री विमर्श या दलित चिंतन की बात है, तो कुछ लोग अपने हिसाब से साहित्य की परिभाषाएं बना रहे हैं, उन्हें लकीरें खींचने दीजिए। हमें इसके लिए सिरदर्द नहीं पालना चाहिए। साहित्य को बाजार ने प्रभावित किया है यह उक्ति पिछले कुछ समय से सूक्ति की तरह प्रयोग में लाई जा रही है। आप मानते हैं कि सर्जनशीलता बाजारी प्रभाव के दायरे से प्रभावित हो सकती है? बाजार या बाहरी दबाव से साहित्यकार कभी प्रभावित नहीं होता। पुरस्कारों के लिए कलमकार नहीं लिखता। कवि कभी तालियों के लिए कविता नहीं रचता। आपने सुना होगा-यशसे अर्थवृत्ते व्यवहार विदे शिवेत रक्षये। कवि के लिए यश तो महत्वपूर्ण है लेकिन अर्थ नहीं। शब्द की अस्मिता बचाने के लिए संघर्ष करें तो बात भी है, केवल धन या खोखली प्रतिष्ठा के लिए खेमेबाजी निम्न व्यक्तित्व का द्योतक है। किताबों को लेकर लोगों में उत्साह नहीं है। मुद्रित शब्दों के प्रति आम जन की आस्था घटी है, लेखकों को रोटी नहीं जुटती? इस तरह के प्रश्नों को आप आरोप मानते हैं या खालिस सच करार देंगे। यह न तो आरोप है, न सत्य। आप कह रहे हैं तो कहीं न कहीं पीड़ा का अनुभव करते हुए कह रहे होंगे लेकिन सत्य यही है कि किताबें अधिक मात्रा में न पढ़ने के पीछे लोगों की व्यस्तता भी एक कारण है। बावजूद इसके जितने भी पढ़े-लिखे लोग हैं, वह पढ़ते हैं। इतनी किताबें छपती हैं, बिकती हैं। आप ही बताएं, यदि यह लाभ का सौदा न होता तो प्रकाशक लाखों खर्च करके यह व्यवसाय क्यों चलाते रहते? इलेक्ट्रानिक मीडिया को साहित्य का शत्रु घोषित किया जा रहा है। वह पश्चिम से आया है। वहां भी किताबें छपती हैं, बिकती हैं वह भी ढेरों मात्रा में। हां, इलेक्ट्रानिक मीडिया ने पाठकों को आप्शन जरूर दिया है लेकिन साहित्य की जगह अब तक बरकरार है। जहां तक बात लेखकों के भूखे मरने की बात है, यह सर्वकालिक प्रश्न है। प्रेमचंद के जमाने तो लोग किताबें बहुत पढ़ते थे तो प्रेमचंद खस्ताहाल क्यों रहे? निराला ता-जिंदगी सीलनभरी कोठरी में दिन गुजारने के लिए मजबूर क्यों थे? हो सकता है उस समय प्रकाशन व्यवसाय में लेखक सबसे कमजोर पायदान पर रहा हो लेकिन आज का रचनाकार ठीकठाक स्थिति में है। उसे मालपुआ नसीब भले न हो, सम्मान की रोटी तो वह जुटा ही लेता है। कुछ साहित्यकार अपने स्तंभों में अनूठे ढंग के विवादास्पद बयान देने में दिन-रात जुटे रहते हैं। उनके लिए पाठकों और सर्जन के स्वास्थ्य की कोई अहमियत नहीं है क्या? देखिए, नई बात कहने के चक्कर में ऐसे तथाकथित साहित्यकार इतने उतावले हो जाते हैं कि वह खुद नहीं जा पाते कि क्या कह रहे हैं? उनका कथन कितना प्रासंगिक नहीं है। दलित साहित्य के बारे में कहा जा रहा है कि पहले इनकी पीड़ा लिखी ही नहीं गई तो प्रेमचंद कफन, गोदान, ईदगाह में किस वर्ग की बात कर रहे थे? अब लोग उन्हीं प्रेमचंद की रंगभूमि की चिता जला रहे हैं। एक बात साहित्यकारों को समझनी चाहिए, यदि वे समाज को आहत करने वाले बयान देते रहे तो पाठकों को समझ आ जाएगा, जिन्हें वे आदर्श मानते हैं-वे दरअसल छिछले हैं। आज का समाज वैसे ही टूट चुका है। 200 साल में अंग्रेज समाज को जितना नहीं तोड़ पाए, मंडल कमीशन ने एक रात में उससे ज्यादा नुकसान कर ही दिया है। अब बाकी बचे समाज को खांचों में बांटकर और ध्वस्त न कीजिए। आत्मकथाओं में लेखिकाएं बेडरूम के दृश्य लिखकर किस रचनात्मक अवदान को बढ़ावा दे रही हैं? अब मैं क्या कहूं उनकी दुर्बुद्धि पर। मैं तो यही कहूंगा कि जो काम करने से पहले आपने समाज से नहीं पूछा, उसके लिए अब हल्ला क्यों मचा रही हैं आप? आपके अवैध संबंधों में पाठकों की रुचि नहीं है। कृपा करके, समाज का विकास करने वाली बात कीजिए। उसे डुबाने का उपक्रम न कीजिए। मनुष्य ने हजारों वर्ष के उपक्रम के बाद वस्त्र का आविष्कार किया है, अब नग्न होकर अस्वाभाविकता का दर्शन कराने से पाठकों को कोई अलग लाभ नहीं होने वाला। -चण्डीदत्त शुक्ल

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