मंगलवार, 6 नवंबर 2007

roshani ka tyohar

दीवाली आने वाली है...पटाखों, मिठाइयों और लघु संदेशों की बड़ी भरमार है...आइए दीपों का त्योहार मनाएं और शपथ लें कि दिलों में जलन बाकी न रहेगी

गुरुवार, 1 नवंबर 2007

हिंसा है गीतों में अश्लीलता

हिंसा है गीतों में अश्लीलता

सरसों के खेतों की खुशबू से लहकी पुरवाई, कूकती कोयल, परदेसी पति को याद कर बिदेसिया गाती पनिहारिनें और मेड़ किनारे गमछा बिछाए कलेवा करते किसानों की परछाइयां, इस परिवेश का ही असर था जो होश संभाला तो पता चला कि कदम खुद ही कला की राह पर चल चुके थे। पांच-छह साल की उम्र रही होगी। मैं अकसर एकांत में कोई न कोई गीत गुनगुनाती, गीत पर अभिनय करती और झूमती रहती। एक दिन पिता श्री शुकदेव ठाकुर ने ऐसे नृत्य करते देख लिया। बोले, 'नृत्य सीखना चाहती हो?' मैंने सिर हिला दिया और शुरू हो गया यह सफर।
हंगामा हो गया
उन दिनों गांवों में दुर्गापूजा का भव्य आयोजन होता था। इसी आयोजन में मैंने एक बार भजन पेश किए। उसी बीच पिता ने पटना के भारतीय नृत्य कला मंदिर में दाखिला करा दिया था। गांव की लड़की गायन या नृत्य सीखे, यह बात किसी के गले नहीं उतरी थी। मेरी मां भी इसके पक्ष में नहीं थीं, लेकिन पिताजी के आगे किसी की नहीं चली। भारतीय नृत्य कला मंदिर में मैंने मणिपुरी नृत्य सीखा। तब हरी उप्पल उसके निदेशक थे। वे हमेशा मुझे प्रोत्साहित करते। उन्हीं दिनों तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन आए। मैंने उनके सामने मणिपुरी की एक शैली कृष्णविसार प्रस्तुत की। दूसरी पेशकश थी राधाविसार की। उसी समय मेरे दाएं हाथ में फ्रैक्चर हो गया था। गुरु अंतरेंबा दास भी वहां मौजूद थे। नृत्य करने से मना करने का प्रश्न ही नहीं उठता था, लेकिन संकट यह था कि कृष्णविसार और राधाविसार की प्रस्तुतियों में तेज गति से दौड़ते हुए मंच पर आना था और मुद्राओं की पेशकश के लिए हाथ सही होना जरूरी था। फिर भी मैंने नृत्य किया और मुद्राओं की सही अभिव्यक्ति भी। बाद में गुरु जी को पता चला तो उन्होंने सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, 'शारदा, तुम जरूर नाम करोगी।'
इस बीच शादी हो गई। पति बृजकिशोर सिन्हा उन दिनों साइंस कॉलेज, समस्तीपुर में राजनीति शास्त्र के लेक्चरर थे। वे हमेशा प्रोत्साहित करते। शादी के बाद भी मैंने दो नृत्य प्रस्तुतियों में हिस्सा लिया। एक बार तब जब बांग्लादेश पाकिस्तान से अलग हुआ था। मैंने शांति सैनिकों का उत्साह बढ़ाने के लिए नृत्य कार्यक्रम में हिस्सेदारी की। दूसरी बार बांकीपुर में एक नृत्य कार्यक्रम दिया।
मिला जीवनसाथी का साथ
पिता की तरह ही पति का भी सहारा अगर न मिला होता तो शायद मैं इस मुकाम पर न पहुंच पाती। मुझे याद है, पहली बार जब मैं ससुराल गई, तो सास ने स्पष्ट कहा, 'गाना है, तो भजन गाओ। वह भी घर की दहलीज में या फिर घर छोड़ दो।' उस मुश्किल में किसी ने साथ दिया, तो वह ससुर जी थे। पति ने भी सासू मां से कहा, 'शारदा मेरे लिए किसी वरदान की तरह है। उसकी प्रतिभा का सम्मान कीजिए।' जब सास ने देखा कि सब साथ दे रहे हैं, तो वे भी शांत हो गई।
जीवन में सबको एक मौका जरूर मिलता है, जब वह खुद को साबित कर सकता है। मुझे भी मिला। 1971 में एचएमवी ने एक टैलेंट सर्च किया था। लखनऊ में ऑडिशन होना था। ट्रेन देर से पहुंची, इसलिए आराम भी न कर पाई और जाते ही ऑडिशन में बैठना पड़ा। तरह-तरह के लोग इकट्ठा हुए थे। कुछ तवायफें भी पहुंची थीं और भी कई तरह के गवैए। उस समय एचएमवी की ओर से रेकॉर्डिग मैनेजर जहीर अहमद, संगीतकार मुरली मनोहर स्वरूप वगैरह मौजूद थे। भीड़-भड़क्का देखकर जहीर अहमद घबरा ही गए। उन्होंने सबको एक सिरे से अयोग्य घोषित कर दिया। मैं तो बहुत घबराई लेकिन पति ने दिलासा दिया। वे जहीर अहमद से मिले। खैर, किसी तरह दोबारा रिकार्डिग हुई। मैंने गाया, 'द्वार के छेकाई नेग पहिले चुकइयौ, यौ दुलरुआ भइया।' यह भी संयोग ही है कि एचएमवी के वीके दुबे उसी समय पहुंचे। मेरी आवाज सुनी तो लगभग चिल्लाते हुए बोले, 'रेकॉर्ड दिस आर्टिस्ट!' उस समय एक डिस्क में दो ही गाने होते थे। संस्कार गीतों की डिस्क एचएमवी ने रेकार्ड की। 'सीता के सकल देखी..' गीत बहुत लोकप्रिय हुआ। फिर जो कदम चल पड़े तो रुके नहीं। अब तो जैसे जमाना बीत गया है, गाते हुए।
कहे तोसे सजना
मेरा सबसे प्रसिद्ध फिल्मी गीत है, 'कहे तोसे सजना ये तोहरी सजनियां..।' संस्कार गीतों का स्पर्श यहां भी साफ है। विद्यापति के गीतों पर आधारित एक सेमी क्लासिकल सीडी, 'ए ट्रिब्यूट टु मैथिल कोकिल विद्यापति' को मैंने स्वर दिया था। पंडित नरेंद्र शर्मा ने उसमें कमेंट्री की थी। राजश्री प्रोडक्शंस के ताराचंद बड़जात्या ने वह एलबम सुना और मुझे पत्र लिखा। उन दिनों 'माई' फिल्म की रिकार्डिग चल रही थी। मैं बड़जात्या जी से मिली। उन्होंने कहा, 'मैं एक फिल्म बना रहा हूं, 'मैंने प्यार किया'। उसमें लोकधुन पर आधारित एक गीत है। आप वह गीत गा दें।' गीत की रिहर्सल होने लगी। इस गीत की धुन तैयार करते वक्त संगीत निर्देशक रामलक्ष्मण ने टी सीरीज द्वारा रिलीज मेरे ही एक एलबम 'खइलीं बड़ा धोखा..' के गीत 'कइनीं का कसूर तनी अतनै बता दा..' के संगीत का इस्तेमाल किया। फिल्म की थीम को प्रोजेक्ट करते हुए गीत को लोगों ने बहुत पसंद भी किया।
इसी तरह 'हम आपके हैं कौन' फिल्म का गीत 'बाबुल जो तुमने सिखाया..जो तुझसे पाया, सजन घर ले चली..' भी मेरे ही एक गीत की ट्यून पर आधारित था। ये दोनों गीत मेरे लिए अथाह लोकप्रियता लेकर आए और यह विश्वास भी दिलाया कि सारे देश को अपनी मिट्टी की छुअन अपनी ओर अब भी खींचती है।
इस हवा में खुशबू कहां
इस खुशी के बावजूद दुख इस बात का है कि भोजपुरी गीतों की हवा अब जहरीली होती जा रही है। जिस तरह लोग शब्दों की हिंसा कर रहे हैं, भाव-भंगिमाओं से लेकर गायन के अंदाज तक अश्लीलता को बढ़ावा दिया जा रहा है, उससे निराशा तो होती ही है। यह अश्लीलता संगीत के साथ हिंसा ही है, लेकिन एक बात साफ है। अच्छी चीज ही टिकती है। मुझको याद है, पहले भी अश्लीलता फैलाई जाती थी, लेकिन वह टिकी नहीं। इसलिए मुझे उम्मीद है कि यह अश्लीलता भी टिक नहीं पाएगी। अपने देश की परंपरा बहुत समृद्ध है, उसका आनंद लेने के लिए अश्लीलता की छौंक लगाने की जरूरत नहीं है। ऐसा करके हम भविष्य के सामने कुछ खराब उदाहरण ही रखेंगे।
हर ओर व्यावसायिकता
एक बात पर और दुख होता है कि लोग व्यावसायिक बहुत हो गए हैं। महानगरों में धुनें बनती हैं। ऐसे लोग उन्हें कंपोज करते हैं, जो कभी बिहार, बनारस गए तक नहीं। अब तो डर लगता है, कोई आपकी चीज लेकर खुद की न बता दे और उसमें अपनी मनमानी बात भी न डाल दे। आजकल के बच्चे तो जन्म लेते ही गायक-गायिका बन जाना चाहते हैं। अब तालीम है नहीं और सफल भी होना चाहते हैं, तो करेंगे क्या? कुछ इधर-उधर से जोड़-जाड़कर गा-बजा लेते हैं। नतीजा सामने है। पहले के गीतों में मधुरता होती थी, जीवन के एहसास होते थे। अब के गानों की जिंदगी तो 15 दिन और एक महीने की होकर रह गई है। हर तरफ शोर ही शोर है। यह और भी ज्यादा दुखद है, क्योंकि अब तो सुविधाएं बढ़ी हैं, उस लिहाज से गुणवत्ता भी बढ़नी चाहिए, लेकिन वह तो रसातल में जा रही है। इन दिनों मैं चैतन्य श्री के निर्देशन में भिखारी ठाकुर पर बन रही फिल्म, 'चल तमाशा देखें' के सभी गीत गा रही हूं। संजय उपाध्याय ने बहुत बढि़या संगीत दिया है और मुझे भी इस फिल्म में बारहमासा और बिदेसिया गाकर बहुत अच्छा लगा। ऐसे गीत गाकर लगता है कि हमने अपनी जमीन को कुछ दिया है। आजकल तो सूरत ही बदल गई है। संगीत निर्देशक कलाकारों पर हावी होने लगे हैं। अब हर कलाकार विरोध नहीं कर पाता, लेकिन ऐसा होना चाहिए।
सम्मान की तलाश में स्त्री
जहां तक स्त्री को सम्मान मिलने की बात है, उसके लिए संघर्ष अब भी जारी है। खुशी की बात है कि स्त्री अपनी शक्ति को समझ रही है। जहां तक मेरी अपनी बात है, मुझे बचपन से लेकर आज तक बहुत संघर्ष झेलना पड़ा है, लेकिन इससे हताश होकर भी काम नहीं चलता। यही वजह है कि मैं कभी नहीं झुकी। अब स्थितियां बदली हैं। आज की स्त्री को ऐसी साधारण समस्याओं का सामना उतनी तीव्रता में नहीं करना पड़ रहा, लेकिन प्रतिष्ठा और स्थापना की समस्या अब भी है ही। कई बार आपको अपनी मौलिकता बचाए रखने के लिए भी संघर्ष करना पड़ता है। पिछले 10 साल से मैं खुद अपने गीतों का दुरुपयोग रोकने के लिए संघर्ष कर रही हूं। इतने यत्न से हम गीत तैयार करते हैं, पता चलता है कि रिकार्ड रिलीज होने के अगले ही दिन किसी अनजाने से गायक का रिकार्ड बाजार में आ जाता है, लेकिन इससे हताश होकर चुप बैठ जाने से धोखाधड़ी के मामले और बढ़ेंगे। जहां तक प्रतिष्ठा पाने की बात है, तो उसे हासिल किया जा सकता है, लेकिन इसके लिए दो बातें जरूरी हैं। एक तो हमारा लक्ष्य पक्का हो, दूसरे हम किसी की अनुचित बात न मानें और डटे रहें। अगर ऐसा हम कर पाए, तो एक न एक दिन मंजिल जरूर मिलेगी।
चण्डीदत्त शुक्ल

सावधान रहें चैटिंग में चीटिंग से

सावधान रहें चैटिंग में चीटिंग से

गाजियाबाद निवासी शबनम मल्टीनेशनल कंपनी में काम करती है। पिछले कुछ दिनों से वह खासी परेशान थी। उसने बताया, 'मेरे साथ बड़ा धोखा हुआ है। दरअसल मैं अकसर किसी न किसी चैटरूम में दोस्तों की तलाश में लगी रहती हूं। एक दिन जयपुर के एक तथाकथित 25 वर्षीय युवक महेंद्र ने मुझे संदेश भेजा, 'मुझसे दोस्ती करोगी?' इसके बाद हमारे बीच संदेशों के आदान-प्रदान का सिलसिला शुरू हो गया। आखिरकार उस महेंद्र का जो अंतिम मैसेज आया, वह चौंकाने वाला था, 'मैं दरअसल 67 साल का बुजुर्ग हूं। मेरे घर में पत्नी, बेटे-बहू और पोते सब हैं। मैं तो समय गुजारने के लिए तुमसे बातें करता था।'
यह एकदम सही है कि ज्ञान का भंडार कहे जाने वाले इंटरनेट का इस्तेमाल न सिर्फकठिन है, बल्कि कई बार 'यूजर' को धोखाधड़ी का सामना भी करना पड़ता है। चैटिंग में तो ऐसा अकसर होता है। पिछले दिनों 'ऑरकुट' तथा ऐसी ही कुछ अन्य सोशल नेटवर्किग वेबसाइट्स को लेकर खासा हंगामा मचा था, जिनके अंतर्गत देह व्यापार में कुछ युवतियों के नाम डिस्प्ले किए गए थे। आप धोखा न खाएं, इसके लिए इन बातों का खयाल रखें :
1. चैटिंग करते समय कभी भी पर्सनल या ऑफिशियल आईडी का उपयोग न करें।
2. चैट रूम में व्यक्तिगत जानकारियां देने से बचें। पता व फोन नंबर भूलकर भी न दें।
3. किसी से भी आपत्तिजनक बातचीत न करें।
4. रेडिफ, एमएसएन और याहू के अलावा, फ्रेंड तथा सोशल नेटवर्क व प्रोफाइल के जरिए भी कई लोग संपर्क साधते हैं, उनसे बातचीत न करें। चूंकि चैटरूम पासवर्ड प्रोटेक्टेड होते हैं, इसलिए चीटिंग करने वाले बेफिक्र होते हैं कि कोई उनके बारे में नहीं जान पाएगा। इसी तरह साइबर अपराधों के मामले में कानूनी व्याख्या तो हो गई है, लेकिन इनसे आम लोग परिचित नहीं हैं। ऐसे में सतर्कता ही आपका बचाव है। यदि आपके पास धोखाधड़ी करने वाले व्यक्ति के बारे में पूरी जानकारी हो, तो पुलिस को सूचित करें।
चैटरूम में ऑनलाइन पार्टनर या ट्रेडिंग के विकल्प न तलाशें। यहां आपके साथ कभी भी धोखाधड़ी हो सकती है। कोई आपका अकाउंट या क्रेडिट कार्ड नंबर जानकर उसका दुरुपयोग कर सकता है। नाइजीरिया की कुछ कंपनियां अकसर लोगों को लुभावने ई-मेल भेजती हैं। इनमें कुछ उत्पादों की बिक्री करने तथा उनके बदले में भुगतान का प्रस्ताव होता है। यही नहीं, कुछ दिन में आपके पास अग्रिम पेमेंट के रूप में चेक भी आ जाता है। चेक क्लियर होने में तो बीस दिन से तीन माह तक का समय लगता है और बाद में 100 फीसदी मामलों में चेक या तो बाउंस हो जाता है, या फिर नकली निकलता है। लेन-देन के समय दूसरी पार्टी की पहचान सुनिश्चित कर लें। वेबसाइट से ़खरीदारी करते समय आपके क्रेडिट कार्ड का नंबर तथा पता व ई-मेल एड्रेस में सतर्कता रखें। ऐसी हालत में 'प्राइवेसी पॉलिसी' पढ़ लें, ताकि आपकी जानकारियां और लोगों तक न भेज दी जाएं। उसी वेबसाइट पर कारोबार करें, जिनमें 'लॉक आइकन' बना हो, क्योंकि ये साइट जाली नहीं होतीं, न ही इन्हें 'हैक' किया जा सकता है। इंटरनेट पर की गई खरीदारी का लिखित ब्योरा भी जरूर रखें, ताकि आपके पास प्रमाण रहें। क्रेडिट कार्ड से भुगतान करते समय 'वेरीसाइन' सरीखे अधिकृत पेमेंट गेटवे का ही चयन करें। इस तरह आपके कार्ड की गोपनीयता और रकम, दोनों सुरक्षित रहेंगी।
और अंत में सबसे जरूरी बात, जब भी चैटिंग करें या इंटरनेट पर कोई साइट खोलें, तो उसे ठीक ढंग से लॉगआउट कर दें, ताकि बाद में उस कंप्यूटर पर बैठने वाला यूजर आपके अकॉउंट को एक्सेस न कर पाए।
(सिलिकॉन कंप्यूवेयर सोल्यूशंस के सीईओ और आईटी सिक्योरिटी विशेषज्ञ सुभांशु प्रधान से बातचीत पर आधारित)
चण्डीदत्त शुक्ल

अध्यात्म के वैज्ञानिक व्याख्याकार-स्वामी विवेकानंद

अध्यात्म के वैज्ञानिक व्याख्याकार-स्वामी विवेकानंद
राष्ट्र को अनूठी धार्मिक चेतना प्रदान करने वाले स्वामी विवेकानंद का स्मरण केवल इस उद्धरण के साथ करना पर्याप्त नहीं कि उन्होंने शिकागो में अपने ओजस्वी भाषण से संपूर्ण विश्व को चमत्कृत कर दिया था। सत्य तो यह है कि शेष संतों की तरह उन्होंने भी मानवमात्र को अस्तित्वबोध कराया और प्रभु से जुड़ाव बनाने का परामर्श दिया। फिर कौन-सा तथ्य उन्हें महत्वपूर्ण बनाता है? व्यक्तिगत विकास की सलाह के साथ आस्था और अध्यात्म की वैज्ञानिक व्याख्या, यही बिंदु है, जो नरेंद्र जैसे साधारण पुरुष का विवेकानंद के रूप में कायांतरण करता है और उन्हें स्थापित करता है, अमिट स्मृति वाले महापुरुष के रूप में। रामकृष्ण परमहंस जैसे गुरु के सान्निध्य ने विवेकानंद को ज्ञान के उत्कर्ष तक पहुंचाया था, लेकिन इसमें उनकी ग्राह्यता को भी साधुवाद देना चाहिए। विवेकानंद ने प्राणिमात्र को महत्वपूर्ण बताने पर सदैव बल दिया हर व्यक्ति की एक जैसी सत्ता है, एक-सी शुद्धता और संपूर्णता भी! संसार स्वतंत्रता, आश्रय और दासत्व का सम्मिश्रण है, लेकिन जीवन का प्रकाश है, स्व-बोध से सृजित। प्रकाश, जो अनश्वर, शुद्ध, निर्दोष और पवित्र है। वह स्वाधीन और अमिट है। उनकी मान्यता का आधार थी, यह बात कि तमाम छुद्रताओं और कमियों के बावजूद मनुष्य में स्व-सुधार का गुण है और जिसने समझने के बाद खुद को परिवर्तित कर लिया, उससे बड़ा, उससे बढि़या और कौन हो सकता है? विवेकानंद ने परमसत्ता की प्राप्ति के लिए भक्ति की राह चलने की सीख दी। वे भक्ति का महान लाभ बताते हैं, यह सरलतम है और प्राकृतिक रास्ता है, उस ईश्वरीय सत्ता तक पहुंचने का, जहां तक हमारी निगाह नहीं जा पाती। हां, बड़ी हानि यह है कि इसके निम्न स्तर पर हम अक्सर डरावने धार्मिक हठ की ओर भटक जाते हैं। यह कोई सतही व्याख्या नहीं है। विभिन्न धर्मो और संप्रदायों के समर्थकों, श्रद्धालुओं से बातचीत कर विवेकानंद ने यह निष्कर्ष निकाला था। वे कहते हैं, ज्यादातर जगह भक्ति के नाम पर आडंबर और सामान्य पूजा पद्धति का चलन है, जो धार्मिक हठ का विस्तार मात्र है। विवेकानंद मानते थे कि हर व्यक्ति की आवश्यकताएं और प्राथमिकताएं उसकी अपनी अनूठी मांग से तय होती हैं, इसे समझने की जरूरत है। वे मनुष्य की संकुचित होती सोच को सही नहीं मानते थे, जिसमें खाने, पीने, जन्म लेने, पुनर्जन्म की आकांक्षा, मृत्यु के अनवरत क्रम का महत्वपूर्ण स्थान होता है। बावजूद इसके उन्होंने व्यक्ति की परिस्थिति और परिवेशजन्य जरूरतों और मांग को समझा और बताया कि इनके अलावा, कुछ और खास बातें हैं, जो आत्मा से जुड़ी हैं। उन्हें समझने की आवश्यकता है, ताकि इस निस्सार जीवन को दिशा मिल सके और प्रभु की संतान होने की महानता हम महसूस कर सकें। विवेकानंद को बुद्ध बहुत प्रिय थे, क्योंकि उन्होंने सामाजिक हित में स्व-हित को कभी स्थान नहीं दिया। गौतम अपना जीवन सामान्य जन के लिए सदैव अर्पित करने को तैयार रहे। स्वयं की नश्वरता को नष्ट कर हम संसार को तनिक भी आधार दे सकें, तो इससे महती कुछ और नहीं, यही था बुद्ध का दर्शन, जिसने विवेकानंद को न केवल प्रभावित किया, उनकी दृष्टि का विकास भी किया। विवेकानंद कहते हैं, बुद्ध अपने भले के लिए राज्य छोड़ जंगल नहीं गए। उन्होंने देखा कि संसार जल रहा है और इस प्रश्न का उत्तर किसी के पास नहीं है कि संसार में इतना दुख क्यों है? बुद्ध ने इसी का उत्तर तलाशने में जीवन का निवेश कर दिया। विवेकानंद के लिए बुद्ध प्रिय हैं, क्योंकि वे संपूर्णता की प्राप्ति के लिए जीवन को भी महत्वपूर्ण नहीं मानते। इसलिए भी, क्योंकि वे नश्वरता की सीमितता पहचानते हैं। विवेकानंद ने इस तथ्य को समझा और आस्था की वैज्ञानिक व्याख्या पेश की। आज जरूरत है कि हम गौतम और विवेक की सीख समझें और उसी राह पर चलें, जिस पर न पाखंड है, न अंध जड़ता, है तो परमसत्ता से साक्षात्कार का आनंद!
चण्डीदत्त शुक्ल

साहित्य को नहीं मिला उचित सम्मान

हिंदी साहित्य को नहीं मिला उचित सम्मान
-रोशनी एक किताब /जो अंधेरे में ही पढ़ी जा सकती है / अंधेरा / एक रास्ता / जो सूरज के घर की तरफ खुलता है..
तकरीबन 32 साल पहले, 12वीं के छात्र, 18 वर्षीय माधव भान ने लिखी थी यह कविता। एक पत्रिका में कविता छपी, पारिश्रमिक के रूप में 7 रुपए का मनीऑर्डर मिला और गाजियाबादवासी माधव की खुशी का ठिकाना न रहा। इस तरह हुई साहित्य से पहली मुलाकात, जो बाद में बरस-दर-बरस गहराती गई। कभी मीरा, सूर, कबीर की भक्ति से प्रभावित हुए, तो कभी रहस्यवाद की गुत्थियां सुलझाने में लगे। फिलहाल, 50 के हो चुके हैं माधव। जिंदगी की इस यात्रा में उन्होंने तमाम रंग देखे, जो धीरे-धीरे उनकी शख्सियत का हिस्सा भी बन गए। कभी मन कहता, कैमरा उठाओ और चल दो रेगिस्तान की खाक छानने, तो कुछ दिन बाद उठती ललक, अब नई प्रतिभाओं को मंच देना है! यह जुनून भी तब, जबकि छोटी उम्र में ही वे आयरलैंड चले गए थे। कुदरत की छांव में बैठने और ट्रैवलिंग का शौक उन्हें बार-बार देश की ओर खींच लाता। आयरलैंड में रेस्टोरेंट व्यवसाय का सफल संचालन करते हुए माधव बार-बार भारत आए। बीच में फिल्म निर्माण की योजना भी बनाई और श्याम बेनेगल से मिले। श्याम बोले, पहले अच्छी-सी स्क्रिप्ट चुनिए, तो विभिन्न साहित्यकारों से मिलने चल दिए। यही मौका था, जब माधव को अहसास हुआ कि साहित्य में भी जमकर मार्केटिंग की जाती है। जितने साहित्यकार, उतने प्रस्ताव, मेरी यह कहानी अनूठी है, इस पर फिल्म बनाइए! माधव हतप्रभ रह गए, इसी बीच मिले भावुकता से भरपूर स्वप्नदर्शी निर्मल। उन्होंने भी साहित्यिक कृति पर फिल्म बनाने के लिए कहा, लेकिन यह सिफारिश अपनी रचना के लिए नहीं थी। इसके बाद चेक कविताओं का अनुवाद करते समय संकलन प्राग् वर्ष के आवरण के लिए निर्मल ने माधव का एक फोटोचित्र इस्तेमाल किया। फिर तो यह जुड़ाव माधव को साहित्य की दुनिया में फिर-से खींचने लगा, लेकिन पूरी वापसी की वजह बनी एक खास घटना। हुआ यूं कि निर्मल अस्वस्थ थे। उनका हालचाल जानने माधव एम्स पहुंचे। बातचीत के दौरान निर्मल ने बताया, मेरी 37 किताबें प्रकाशकों के पास हैं, लेकिन मुझे नाममात्र रॉयल्टी मिल रही है। यह बात माधव को आहत कर गई। बाद में उन्होंने चर्चित व्यवसायी अतुल गर्ग को यह वाकया सुनाया। उन्होंने कहा, जब निर्मल वर्मा जैसे साहित्यकार को ऐसी उपेक्षा सहनी पड़ रही है, तब युवा रचनाकारों के साथ क्या होता होगा? उन्होंने ही माधव को सुझाया, क्यों न ऐसे प्रकाशन की शुरुआत की जाए, जो अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप हिंदी साहित्य का प्रकाशन करे और साहित्यकारों का शोषण समाप्त हो सके! इस तरह पड़ी एक अनूठे प्रकाशन रे माधव की नींव।
अतुल जी के पुत्र, लंदन से एमबीए की पढ़ाई कर लौटे गौरव गर्ग व राघव गर्ग तथा ज्ञानपीठ में वर्षो तक सक्रिय रहे साहित्यकार-कलाकार अशोक भौमिक ने कामकाज संभाला। इरादा नेक था, इसलिए पहल भी हुई खास। रे माधव ने औरों की तरह कहानी संकलन तो छापे, लेकिन अंदाज अलग था। माधव और साथियों ने संकलन के लिए बतौर संपादक उन्हें चुना, जो साहित्यिक पत्रिकाओं का वर्षो तक संपादन कर चुके थे, यानी पहल के संपादक ज्ञानरंजन, सारिका के एक दशक तक प्रमुख रहे अवध नारायण मुद्गल और रवींद्र कालिया।
रे माधव ने भवदेव पांडेय संकलित हिंदी कहानी का पहला दशक : शुरुआती दौर की कहानियां और मुनि क्षमासागर की कविताओं को मुक्ति शीर्षक से प्रकाशित किया, वहीं अब योजना है—स्वर्णाक्षर श्रृंखला के तहत प्रसाद, प्रेमचंद, रवींद्रनाथ, शरत, बंकिम, कुशवाहा कांत, जोगेंदर पाल और उपेंद्र नाथ अश्क का साहित्य प्रकाशित करने की। माधव बताते हैं, यह संकलन अंतरराष्ट्रीय पैकेजिंग के साथ पेश किया जाएगा। आखिरकार, हिंदी जैसा साहित्य और कहां है?
वे साफ कहते हैं, वैभवशाली हिंदी को उचित सम्मान नहीं मिला। माधव को उम्मीद है कि हिंदी प्रेमी उनकी इच्छा पूरी करेंगे और उन्हें सिर्फ सरकारी खरीद पर निर्भर नहीं होना पड़ेगा। रे माधव की ओर से अंग्रेजी समेत कई भाषाओं में साहित्य प्रकाशन किया जाएगा। किशोर, बाल साहित्य के अंतर्गत दद्दू की कहानियां, बुधि का लौटना, मेडल और रंकनी देवी की तलवार जैसी कहानियां लेकर माधव आ रहे हैं, तो यह उनकी देशी सोच का ही प्रमाण है। वे फिल्मकार डेविड के साथ लोकेशन देखने राजस्थान जाते जरूर हैं, लेकिन मौका मिलते ही सुप्रकाश सरीखे युवा चित्रकारों के साथ बैठकर कला-चर्चा करना नहीं भूलते। परिणाम—प्रतिभाओं को मौका देने के लिए माधव ने ग्राफिक डिजाइन स्टूडियो की शुरुआत भी की! फिलहाल, योजना है कि हर माह कम से कम 10 किताबें प्रकाशित की जाएं और जितना कागज खर्च करें, उतने ही पेड़ लगाए जाएं। प्रस्ताव है कि लाभांश को गरीब बच्चियों की पढ़ाई पर खर्च किया जाए और वर्ष के सर्वोत्कृष्ट पुस्तक आवरण, बेहतरीन लघु पत्रिका को पुरस्कृत भी किया जाए। नहीं, बात यहीं खत्म नहीं होती..निर्मल जी की तरह शेष साहित्यकार शोषण का शिकार न हों, इसके लिए रे माधव प्रकाशन ने 75 वर्ष आयु के साहित्यकारों को एडवांस रॉयल्टी देने का मन बनाया है!
चण्डीदत्त शुक्ल