गुरुवार, 1 नवंबर 2007

अध्यात्म के वैज्ञानिक व्याख्याकार-स्वामी विवेकानंद

अध्यात्म के वैज्ञानिक व्याख्याकार-स्वामी विवेकानंद
राष्ट्र को अनूठी धार्मिक चेतना प्रदान करने वाले स्वामी विवेकानंद का स्मरण केवल इस उद्धरण के साथ करना पर्याप्त नहीं कि उन्होंने शिकागो में अपने ओजस्वी भाषण से संपूर्ण विश्व को चमत्कृत कर दिया था। सत्य तो यह है कि शेष संतों की तरह उन्होंने भी मानवमात्र को अस्तित्वबोध कराया और प्रभु से जुड़ाव बनाने का परामर्श दिया। फिर कौन-सा तथ्य उन्हें महत्वपूर्ण बनाता है? व्यक्तिगत विकास की सलाह के साथ आस्था और अध्यात्म की वैज्ञानिक व्याख्या, यही बिंदु है, जो नरेंद्र जैसे साधारण पुरुष का विवेकानंद के रूप में कायांतरण करता है और उन्हें स्थापित करता है, अमिट स्मृति वाले महापुरुष के रूप में। रामकृष्ण परमहंस जैसे गुरु के सान्निध्य ने विवेकानंद को ज्ञान के उत्कर्ष तक पहुंचाया था, लेकिन इसमें उनकी ग्राह्यता को भी साधुवाद देना चाहिए। विवेकानंद ने प्राणिमात्र को महत्वपूर्ण बताने पर सदैव बल दिया हर व्यक्ति की एक जैसी सत्ता है, एक-सी शुद्धता और संपूर्णता भी! संसार स्वतंत्रता, आश्रय और दासत्व का सम्मिश्रण है, लेकिन जीवन का प्रकाश है, स्व-बोध से सृजित। प्रकाश, जो अनश्वर, शुद्ध, निर्दोष और पवित्र है। वह स्वाधीन और अमिट है। उनकी मान्यता का आधार थी, यह बात कि तमाम छुद्रताओं और कमियों के बावजूद मनुष्य में स्व-सुधार का गुण है और जिसने समझने के बाद खुद को परिवर्तित कर लिया, उससे बड़ा, उससे बढि़या और कौन हो सकता है? विवेकानंद ने परमसत्ता की प्राप्ति के लिए भक्ति की राह चलने की सीख दी। वे भक्ति का महान लाभ बताते हैं, यह सरलतम है और प्राकृतिक रास्ता है, उस ईश्वरीय सत्ता तक पहुंचने का, जहां तक हमारी निगाह नहीं जा पाती। हां, बड़ी हानि यह है कि इसके निम्न स्तर पर हम अक्सर डरावने धार्मिक हठ की ओर भटक जाते हैं। यह कोई सतही व्याख्या नहीं है। विभिन्न धर्मो और संप्रदायों के समर्थकों, श्रद्धालुओं से बातचीत कर विवेकानंद ने यह निष्कर्ष निकाला था। वे कहते हैं, ज्यादातर जगह भक्ति के नाम पर आडंबर और सामान्य पूजा पद्धति का चलन है, जो धार्मिक हठ का विस्तार मात्र है। विवेकानंद मानते थे कि हर व्यक्ति की आवश्यकताएं और प्राथमिकताएं उसकी अपनी अनूठी मांग से तय होती हैं, इसे समझने की जरूरत है। वे मनुष्य की संकुचित होती सोच को सही नहीं मानते थे, जिसमें खाने, पीने, जन्म लेने, पुनर्जन्म की आकांक्षा, मृत्यु के अनवरत क्रम का महत्वपूर्ण स्थान होता है। बावजूद इसके उन्होंने व्यक्ति की परिस्थिति और परिवेशजन्य जरूरतों और मांग को समझा और बताया कि इनके अलावा, कुछ और खास बातें हैं, जो आत्मा से जुड़ी हैं। उन्हें समझने की आवश्यकता है, ताकि इस निस्सार जीवन को दिशा मिल सके और प्रभु की संतान होने की महानता हम महसूस कर सकें। विवेकानंद को बुद्ध बहुत प्रिय थे, क्योंकि उन्होंने सामाजिक हित में स्व-हित को कभी स्थान नहीं दिया। गौतम अपना जीवन सामान्य जन के लिए सदैव अर्पित करने को तैयार रहे। स्वयं की नश्वरता को नष्ट कर हम संसार को तनिक भी आधार दे सकें, तो इससे महती कुछ और नहीं, यही था बुद्ध का दर्शन, जिसने विवेकानंद को न केवल प्रभावित किया, उनकी दृष्टि का विकास भी किया। विवेकानंद कहते हैं, बुद्ध अपने भले के लिए राज्य छोड़ जंगल नहीं गए। उन्होंने देखा कि संसार जल रहा है और इस प्रश्न का उत्तर किसी के पास नहीं है कि संसार में इतना दुख क्यों है? बुद्ध ने इसी का उत्तर तलाशने में जीवन का निवेश कर दिया। विवेकानंद के लिए बुद्ध प्रिय हैं, क्योंकि वे संपूर्णता की प्राप्ति के लिए जीवन को भी महत्वपूर्ण नहीं मानते। इसलिए भी, क्योंकि वे नश्वरता की सीमितता पहचानते हैं। विवेकानंद ने इस तथ्य को समझा और आस्था की वैज्ञानिक व्याख्या पेश की। आज जरूरत है कि हम गौतम और विवेक की सीख समझें और उसी राह पर चलें, जिस पर न पाखंड है, न अंध जड़ता, है तो परमसत्ता से साक्षात्कार का आनंद!
चण्डीदत्त शुक्ल

1 टिप्पणी:

@ngel ~ ने कहा…

Aapne Vivekanand ji ke vicharon ko bahut hi ache se saar garbhit kiya hai.. jis tarah se aapne unke aur buddha mein samaanta batayi hai wo bahut hi sundar laga. Sabse achi baat ye hai ki aapki bhaasha shudha aur shailie bahut hi prabhavshaali thi.

-Somyaa