गुरुवार, 1 नवंबर 2007

झुकना नहीं है आदत में

 झुकना नहीं है आदत में
हर दिन पंद्रह घंटे कड़ी मेहनत करने वाले रतन टाटा देश के सबसे बड़े संगठनकर्ता हैं, जिन्होंने कुटीर उद्योगों की भारतीय संस्कृति को आधुनिक तकनीक से लैस विशाल कारखानों के संजाल में संजोया और लाखों लोगों को सुखमय व संपूर्ण जीवन जीने का रास्ता दिखाया।
यूं तो 1868 में ही जमशेद जी नुसेरखान जी टाटा द्वारा स्थापित हाउस ऑफ टाटा ने बाद में टाटा समूह के रूप में स्वदेशी उद्योगों को सम्मान और स्थापना दिला दी थी, लेकिन 1991 में जब इसकी बागडोर रतन टाटा के हाथ में आई, तब तक स्थितियां बदल चुकी थीं। तेज प्रतिस्पद्र्धा और उदारीकरण के दौर में 10.627 करोड़ रुपए टर्नओवर के टाटा समूह की कमान संभालने के बाद रतन टाटा को बाजार की होड़ से तो जूझना ही था। कमान संभालने के बाद उन्होंने ग्रुप कंपनियों के प्रबंध निदेशकों की सेवानिवृत्ति की आयु 65 वर्ष तय कर दी।
आत्मविश्वास, निर्भीकता और कड़ा परिश्रम..इन्
्हीं के दम पर रतन टाटा ने 1991 में तकरीबन 11 हजार करोड़ रुपए के टर्नओवर को 2005 तक 61 हजार करोड़ रुपए के सालाना कारोबार तक पहुंचा दिया। दरअसल, 1983 में ही रतन ने आंक लिया था कि टाटा समूह में लचीलापन बढ़ रहा है और जब 54 वर्ष की उम्र में उन्हें नेतृत्व का जिम्मा मिला, तो उन्होंने निढाल हो रहे ग्रुप की तस्वीर बदल दी।
1937 में जन्मे रतन ने शुरुआती पढ़ाई केलवियन स्कूल, मुंबई से की और बाद में यूएसए की कोरनेल यूनिवर्सिटी से आर्किटेक्चर में ग्रेजुएशन किया। अमेरिका में जॉन्स एंड इमोंस कंपनी में उन्होंने इंटर्नशिप भी की। 1962 में रतन भारत लौटे और 1971 में 40 लाख रुपए घाटे वाली कंपनी नेल्को की कमान संभाली। कुछ दिन बाद कंपनी में तालाबंदी भी हो गई, लेकिन रतन की आदत में झुकना कहां था? ताले खुले और नेल्को में तीन गुना उत्पादन होने लगा। उनकी सजगता का अहसास एक नव वर्ष संदेश से लगाया जा सकता है, हमें ज्यादा आक्रामक होना होगा। उत्पादों की क्वालिटी और सेवा का स्तर अधिक बेहतर बनाना होगा।
स्पष्ट है—कुछ नया, कुछ खास करने का जुनून रतन टाटा पर हमेशा छाया रहता है। ऐसा न होता, तो ट्रक बनाने वाली टाटा मोटर्स खूबसूरत इंडिका कैसे तैयार कर पाती? इस सबके पीछे बेशक है एक ही शख्सियत—रतन टाटा। यूं ही कहा भी नहीं जाता, टाटा आधुनिक भारत का कोहिनूर है और टाटा के रतन हैं—रतन टाटा।
चण्डीदत्त शुक्ल

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